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सोमवार, 29 अगस्त 2022

हवेली बनाम पीढी!

 लोग कहते हैं ,

हवेलियां मजबूत होती हैं ,

एक पीढ़ी उसको बनाती है 

तो 

दूसरी पीढ़ी उसको सजाती है ।

ये मैंने भी देखा है ,

साथ ही देखा है - 

बड़ी बड़ी हवेलियों को दरकते हुए ,

भले ही ईंटें न बिखरें ,

छतें न दरकेंं

फिर भी दीवारों में दरारें आ ही जाती हैं।

बनने लगती है,

नयी दीवारें आँगन में,

बाँटने को पीढ़ियों के अंतर को।

कोई भी हवेली अखण्ड नहीं होती है, 

वो बरगद या पीपल नहीं होती,

जो शाख-दर-शाख चलती ही रहे।

बीज भले दूर दूर तक जाकर उग आयें

हवेलियाँ  कहीं नहीं जाती है।

एक दिन ढह जाती हैं 

और खण्डहर बन सदियों तक भले पड़ी रहें।

 

5 टिप्‍पणियां:

Vocal Baba ने कहा…

'हवेलियाँ बरगद या पीपल नहीं होती।' --वाह ..बहुत खूब। सादर।

अनीता सैनी ने कहा…

मर्मस्पर्शी सृजन।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

सुन्दर कविता . सब कुछ बदल जाता है कुछ समयान्तर से और कुछ स्थानान्तर से . चिन्ता तो यह कि संस्कृति का हस्तान्तरण कम या लगभग बन्द ही होगया है .

अनीता सैनी ने कहा…


जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१९-०९ -२०२२ ) को 'क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं'(चर्चा अंक -४५५६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Amrita Tanmay ने कहा…

यह यथार्थ कटु लगा और अंदर कुछ दरक भी गया। पर होता तो ऐसा ही है। सुन्दर अभिव्यक्ति।