मंगलवार, 3 सितंबर 2024
यादों का प्रवाह!
यादें
बस एक प्रवाह होती हैं,
बहते हुए समंदर में
जीवन के गुजर गए
वक्त की गवाह होती हैं।
एक आती है
तो
उसी से जुड़ी सैकड़ों
यादें एक सैलाब की तरह
कभी दिमाग में उमड़ कर
सिमट नहीं सकती हैं ,
वे इन आँखों से जिया
एक जीता हुआ ख़्वाब होती हैं।
अच्छी होती हैं
या फिर बुरी ,
कटु होती लेकिन
गुजरे हुए पलों का बहाव होती हैं।
ठहरती कब हैं? चाहे जैसी भी हों
जीवन का एक लगाव होती हैं।
छूटे हुए वापस
अदृश्य ही सही
वापस लाने का एक घुमाव होती हैं।
वक्त वक्त पर उभर कर जेहन में
मथ कर मन को फिर
भूल जाने का एक दुर्भाव होती हैं।
यादें
सिर्फ एक प्रवाह होती हैं।
संशय मन का!
रोज उठाती हूँ कलम,
कुछ नया रचूँ,
शुरू होती है जंग,
शब्दों और भावों में,
नहीं नहीं बस यही रुकूँ,
समझौता तो हो जाए।
शब्दों का गठबंधन
भावों का अनुबंधन,
एक नहीं हो पाता।
जो रचता ,
रच न पाता।
कैसा है संशय मन में?
आखिर कैसा हो?
जो लिखूँ?
कभी झाँकती सूनी आंखों में,
कभी पढ़ूँ उन कोरे सपनों को,
रंग भरूँ क्या नए रूप से
साकार करूँ उन सपनों को
कोई ऐसा गीत रचूँ क्या?
आशा का दीप बनाकर
रोशन उनकी आशा कर दूँ,
या
फिर प्रेरणा भरकर
उसमें उसके अंर्त में
एक ज्योति जलाऊँ,
इससे पहले स्याही सूखे,
कुछ तो सार्थक रच जाऊँ।
रेखा श्रीवास्तव
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