चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

रविवार, 29 जनवरी 2023

खोजते हैं!

 कितनी अजीब हैं ये दुनिया वाले,

परिंदों को बेघर कर अपना आशियाना खोजते हैं।


बसा कर मंजिलों का जाल,

अब सैर के लिए जमीन खोजते हैं।


उजाड़ कर बाग गाँवों के ,

शहर की धूप में छाँव खोजते हैं।


खेत की माटी में विष बो कर,

अब शहरों में छतों पर खेत खोजते हैं।


कैसे नादान बनते हैं ये सयाने लोग ,

घरों को छोड़ कर विला में अपनत्व खोजते हैं।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

गमज़दा घर !

 

गमज़दा घर !

उस मकान से
कभी आतीं नहीं 
ऐसी आवाजें
जिनमें खुशियों की हो खनखनाहट।
खामोश दर,
खामोश दीवारें, 
बंद बंद खिड़कियाँ,
ओस से तर हुई छतें
शायद रोई हैं रात भर ।
कोई  इंसान भी नहीं 
हँसता यहाँ,
मुस्कानें रख दी हैं गिरवी। 
उनके यहाँ 
खुशियाँ ने भी
न आने की कसम खाई है।
शायद इसीलिए
हर तरफ मायूसी छाई है।

रविवार, 9 अक्तूबर 2022

एलेक्सा!

एलेक्सा!

हाँ वह एलेक्सा है,
आज की नहीं
बल्कि वह तो वर्षों से है।
वह एलेक्सा पैदा नहीं हुई थी,
माँ की मुनिया,
बापू की दुलारी,
विदा हुई जब इस घर से,
तब पैदा हुई एलेक्सा।
और फिर वही बनी रही, 
उसको किसी मशीन में नहीं 
बल्कि मशीन ही बना दिया
और 
वह एक जगह नहीं
जगह जगह दौड़ती रहती है।
एक नहीं कई थे आदेश देने वाले,
वह रोबोट नहीं थी,
वह आज की एलेक्सा नहीं थी
तब उसका नाम कुछ भी होता था।
उसे लाया जाता साधिकार,
फिर वह एलेक्सा बना दी गई।
तारीफ देखिए सदियों बाद जब
नयी एलेक्सा आई तो
वह भी स्त्रीलिंग है
और उसका निर्माता पुरुष।
आज की एलेक्सा तो बगावत भी कर सकती है,
कल की तो बोलना भी नहीं जानती थी, 
चुपचाप आदेश पूरा करती रहती।
आज भी हर दूसरे घर में 
दो दो एलेक्सा मिल जायेंगी
ये उनकी नियति है,
चाहे हाड़-माँस की हो या मशीन
उसे सिर्फ आदेश मानना है
बगैर नानुकुर किए 
ये एलेक्सा हर युग में रही है 
और रहेगी।
नारी का दूसरा अवतार एलेक्सा है।

 

सोमवार, 29 अगस्त 2022

हवेली बनाम पीढी!

 लोग कहते हैं ,

हवेलियां मजबूत होती हैं ,

एक पीढ़ी उसको बनाती है 

तो 

दूसरी पीढ़ी उसको सजाती है ।

ये मैंने भी देखा है ,

साथ ही देखा है - 

बड़ी बड़ी हवेलियों को दरकते हुए ,

भले ही ईंटें न बिखरें ,

छतें न दरकेंं

फिर भी दीवारों में दरारें आ ही जाती हैं।

बनने लगती है,

नयी दीवारें आँगन में,

बाँटने को पीढ़ियों के अंतर को।

कोई भी हवेली अखण्ड नहीं होती है, 

वो बरगद या पीपल नहीं होती,

जो शाख-दर-शाख चलती ही रहे।

बीज भले दूर दूर तक जाकर उग आयें

हवेलियाँ  कहीं नहीं जाती है।

एक दिन ढह जाती हैं 

और खण्डहर बन सदियों तक भले पड़ी रहें।

 

इतिहास बन गए!

 गुजरे साल के वो भयावह दिन ,

किस तरह एक तारीख़ बन गए। 

 

समेट  कर जो कुछ रखा था यादों में ,

कुछ ज़ख्म  कुछ फाहे बन गए। 

 

नहीं जानते कौन कब बेगाने हुए ,

कौन दिल से जुड़े और साये बन गए। 

 

जिया था जीवन साथ जिनके उम्र भर ,

गर्दिश  में देखा तो अनजाने बन गए।

रिश्तों की सिलन!

 रिश्तों में सिलन

जन्म से होती है,

तभी तो

सब मिलकर बनता है

परिवार परिधान।

सबका अलग अलग अस्तित्व

फिर भी जुड़े होते है ।

सारे अवयव

जुड़े होते है सिर्फ माँ से,

और माँ संतुलन बनाये

सबको धारे रहती है।

समय के साथ

आकार बढ़ता है फिर

अपने ही सामने 

जब टूटने लगती है वह सिलन,

फिर नहीं सिल पाती है

सिल भी ले तो

नहीं हो पाते हैं

सब एक साथ , एक आकार में।

खुद सुई तागा लिए

कभी इसको सुधारती है

और कभी उसको

लेकिन खुद दोषी बना दी जाती है

और एक किनारे बैठा दी जाती है।

कहीं कॉलर,

कहीं आस्तीन,

कहीं बाँधने वाला फीता,

शेष बचा भाग उड़ जाता है हवा में,

वो देखती रहती है बेबसी से,

उस सिलन की सूत्रधार ।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

सावन!

 सावन लिखा

तो

मायका याद आया,

इस घर से वहाँ जाना,

नीम पर पड़ा झूला,

सारी सहेलियों की टोली,

हफ्तों पहले से सपने

तैरने लगते थे।

कितनी तैयारी होती थी?

छोटी बहनों के लिए

कुछ लेकर तो जाना है,

भाई की पसंद की राखी

पसंद की मिठाई,

भाभी की चूड़ियाँ, कंगन

सब इकट्ठा करके चलते थे।

आज 

वहाँ न माँ-पापा रहे

न बहनें - सब अपने घर

अब नहीं मिल पाते वर्षों,

और भाई भी रूठ गये,

फिर कैसा सावन, राखी, चूड़ियाँ, कंगन

सब बेमानी हो गये।

खो गये सब मायने

और मायका भी तो बचा कहाँ?

न माँ, न पापा और न भाई हों जहाँ।