गुरुवार, 4 अगस्त 2022
माँ : एक भाव!
शनिवार, 25 जून 2022
कितना बदल गया संसार !
कितना बदल गया संसार !
दर वही,
द्वार वही,
बाड़ी भी वही
बस कुछ दीवारें बढ़ गईं।
कुछ दरवाजे,
कुछ खिड़कियाँ,
पत्थरों औ' रोशनी की
चमक बस कुछ और बढ़ गई।
आँगन वही,
चेहरे मोहरे वही,
जमीन भी वही
बस धन की दूरियाँ बढ़ गईं।
जीवन वही,
रिश्ते भी वही,
रगों में बहता खून वही,
बस ज़िन्दगी में तल्खियाँ बढ़ गईं।
ये साठ साला औरतें!
ये साठ साला औरतें !
ये कल की साठ साला औरतें,
घर तक ही सीमित रहीं,
बहुत हुआ तो
मंदिर, कीर्तन और जगराते में,
पहन कर हल्के रंग की साड़ी,
चली जाती थीं,
चटक-मटक अब कहाँ शोभा देगा उन्हें
और कभी कभी तो उनकी आने-जाने की कुछ साड़ियाँ वर्षों तक
चलती रहती थी,
कहीं गईं तो पहन लिया और आकर उतार कर बक्से में धर दिया।
ये कल की साठ साला औरतें -
हाथ पकड़ कर पोते-पोतियों के
पड़ोस में जाकर बैठ आती,
कुछ अपने मन की कह कर,
कुछ उनके मन की सुन आती।
वही तो हमराज होती थीं।
पति के साथ बैठकर तो बतियाने का रिवाज कम था,
जरूरत पर बतिया लो, पैसे माँग लो या कहीं बुलावे में जाना है, की सूचना दे दो।
ये थी कल की साठ साला औरतें।
और
आज की साठ साला औरतें-
लगती ही नहीं है कि साठ साला हैं ,
आज तो जिंदगी शुरू ही अब होती है,
रिटायरमेंट तक दौड़ते भागते,
घर बनाते, बच्चों के भविष्य को सजाते निकल जाता है।
कब सजने का सोच पाईं,
अब किटी पार्टी का समय आया है,
अब सखी समूह में घूमने का समय आया है,
नहीं बैठती है, अब बच्चों को लेकर पार्क में,
खुद योग में डूब कर स्वस्थ रहना सीख जाती हैं।
तिरस्कार नयी पीढ़ी का क्यों सहें?
अपने को अपनी उम्र में ढाल लेती हैं।
अपने गुणों को डाल कर नेट पर समय बिताती हैं,
अपने गुणों से ही पहचान बनाती हैं।
जिंदगी जिओ जब तक,
जिंदादिली से जिओ ,
जो संचित अनुभव है, बाँटो और खर्च करो,
अपने की तोड़कर अवधारणा फैल रहीं है दुनिया में।
ये साठ साला औरतें लिख रहीं इतिहास नया।
ये आज की साठ साला औरतें,
युवाओं से भी युवा है।
जीना हमें भी आता है,
कहकर मुँह चिढ़ा रहीं हैं नयी पीढ़ी को,
वह पहनतीं हैं जो सुख देता है,
सुर्ख़ रंगों में सजे परिधान संजोती हैं,
लेकिन अब भी लोगों की आँखों में किरकिरी की तरह
खटक जाती है इनकी जिंदादिली
क्योंकि
आज की साठ साला औरतें
सारी बेड़ियाँ तोड़ना चाहती है ।
बुधवार, 8 जून 2022
कुछ खो गया!
कुछ खो गया!
इस सफर में
कुछ खो गया, या छूट गया,
हर तरफ उँगली उठी -
'दोषी तुम हो,
ध्यान कहाँ रहता है?
कहाँ खोई रहती हो?
गाढ़ी कमाई का पैसा है।'
आँखें बंद किए,
मींच कर ओंठ,
आँसू घुटकती गले के नीचे,
रसोई में खड़ी रोटी सेंक रही थी।
पी गई, सब आरोप, कटाक्ष
जो छोटे और बड़ों ने दिए थे।
एक सवाल उठा जेहन में -
कभी सोचा है मैंने अपना क्या क्या खोया है?
अपनी बेबाक आवाज़ खोई है,
अन्याय के खिलाफ उठती हुई हुँकार खोई है,
वे शब्द खोए,
जिन पर पहरा लगा हुआ है,
अपना सच कहने का हौसला खोया है,
मेरा सच आग के हवाले हो गया,
सच का हुआ पोस्टमार्टम तो
कलम, कागज,शब्द खो गये,
तब भी नहीं पूछा जब -
माँ खो गई,
पापा खो गये,
भाई भी तो खो दिए।
नहीं पूछा किसी ने कि - क्या खो दिया?
मत रो सब मौजूद है।
वो दिखा नहीं जो खोया मैंने,
अपना देख स्यापा मना रहे हैं।
उसको दोषी बना रहे हैं,
जिसने अपराध किया ही नहीं।
अपराधी खुद उँगली उठा रहे हैं।
बेगुनाह पर तोहमत लगा रहे हैं।
रविवार, 5 जून 2022
कुछ बोलती खामोशी!
खामोशी
यूँ ही नहीं होती
बोलती है
कहती है अपनी व्यथा ,
बस उसे सुननेवाला चाहिए ।
ओढ़ नहीं लेता कोई यूँ ही
खामोशी की चादर
विवश होता है ओढ़ने को ।
क्यों सोचा है कभी किसी ने ?
शायद नहीं -
नहीं तो खामोशी ओढ़ी ही क्यों जाती ?
खामोश सिर्फ जुबाँ ही नहीं होती,
आँखों में भी फैली होती है ,
वह खामोशी
जिसे हर कोई पढ़ नहीं सकता है।
खामोशी उस घर की
जिससे अभी अभी विदा हुआ कोई सदस्य
बस सिसकियों ही गूँजती है।
खामोशी
उस इंसान की जिसने खोया है अपने किसी अंश को,
कोई पढ़ सकता है ?
शायद वही जो भुक्तभोगी है,
अब खामोशी ओढ़ना मजबूरी है,
न कहीं जाना न आना
हालात सबके वही है
शायद ही कोई होगा
जिसने खोया न हो कोई अपना ,
उस दर्द को भी पीना अकेले ही है
खामोशी से
कोई काँधे पर हाथ भी न धरेगा
न पौंछेगा आँसू कोई
दर्द ओढ़ कर जीना है
दर्द का विष भी पीना है
वह भी खामोशी से ।
शुक्रवार, 3 जून 2022
मैं क्या हूँ?
मैं भाव हूँ
उमड़ता हूँ तो छा जाता हूँ
काले बादलों सा,
बरसता हूँ तो भी छा जाता हूँ
कागजों पर स्याही के संग
कलम पर सवार होकर
देखा होगा आपने?
पीड़ा भी हूँ,
और उल्लास भी
रुदन हूँ औ' हास भी,
अपना भी हूँ औ' दूसरे की भी
बस अपना समझ जिया उसको,
गरल बन पिया उसको,
जीवन में कुछ नया कर गया,
देखा होगा आपने?
मैं शब्द हूँ,
उमड़ता हूँ दिमाग में
कभी कल्पना से,
कभी साक्षी बनने से
कभी तो भोक्ता भी होता हूँ,
ढल जाता हूँ -
कभी कविता में,
कभी कहानी में
उतर कर कागजों पर रच जाता हूँ।
देखा होगा आपने?
बस इसीलिए तो हर रूप में स्वीकृति हूँ,
पीड़ा, भाव और शब्दों की अनुकृति हूँ।
सोमवार, 16 मई 2022
सदमा!
वो मेरी बहुत
घनिष्ठ और आत्मीय
अचानक एक दिन खो बैठी
अपने जीवन साथी को।
अवाक् और हतप्रभ खामोश हो गई।
जब पहुँची उसके सामने तो
सदमे में घिरी
उदास और बेपरवाह सी बैठी थी।
मुझे देख चहक कर बोली-
तुम्हें वो बहुत इज़्ज़त देते थे, कभी बात नहीं टाली
एक फोन किया नहीं कि पहुँच गये,
ए सुनो मुझे उनसे मिलना है,
तुम्हें मिले तो कह देना
मैंने बुलाया है।
तुम्हारी बात टालेंगे नहीं।
कहोगी न, कहोगी न!
फिर फफक फफक कर रो पड़ी,
मैं देखती रह गई,
मेरे पास उसको समेटने के सिवा कुछ न था।