अब कदम भी
साथ चलने को तैयार नहीं.
वह तो अब भी
वही चाहते हैं,
जिसे सदियों से
देखते चले आ रहे हैं.
आधुनिक युग ने
तमक कर कहा -
ऐसी कौन सी धरोहर है?
जिसे देख कर
हमें धिक्कार रहे हो.
अरे कुएं से निकल कर
बाहर आओ.
देखो तो सही
इस दुनियां में
कितने चमत्कार है?
वो खेतों की मेंड,
और खेतों में बने
मचान कर रहने के सदमें से
बाहर निकलना सीखो.
ये ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं
उजाले से दमकते हुए शहर
अब लोग खेत नहीं
फलित चाहते हैं.
देखो कब तक
तुम
इन्द्र देव की और हाथ उठा कर
प्यासी आखें लिए
तरसते रहोगे.
बाहर निकालो इस व्यामोह से,
खुद भी जिओ और हमें भी जीने दो.
बेचो खेत
और करोड़पति बन जाओ.
पीढियां बैठ कर खायेंगी.
वो तो सच है कि
खेत में वर्ष भर हल जोत कर
पानी देकर भी
फसल को हम अपनी तो
नहीं कह सकते हैं.
पता नहीं कौन सा पल
सब बर्बाद कर दे और
फिर खाली हाथ
लेकिन इसे बेचकर भी
क्या हम
उन करोड़ों से फसल उगा कर
खा सकेंगे?
हम रुपये तो नहीं खायेंगे.
एक फसल गयी तो
दूसरी की आशा जीवित रहती है.
अगर अपनी इस माँ को बेच दिया तो
फिर वो माँ कहाँ से पायोगे?
अभी ये गाँव है,
इसमें कुछ आम के बगीचे भी,
चौपाल और निबरिया भी है
हम इसके आदी हैं
इसमें में जिए है
फिर ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं में
अगर बगीचे लगाने का वादा करो.
हमारी चौपाल और निबरिया को ले चलने का वादा करो
तो हम
तुम्हें करोडपति बना कर
जीने का हक देते हैं.
खुद की सारी जिम्मेदारी तुम्हें देते हैं.
बस वादा पूरा कर देना.
इस दुनियां तो उजाड़ने से पहले
हमारी दुनियां वही पर बसा देना.