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बुधवार, 22 अगस्त 2012

दूसरा आँचल .!


 



किसी ने 
चलती ट्रेन से 
दुधमुंही को फेंका 
मुंह के बल गिरी 
वो कोमल सी नवजात 
बड़ी सख्त जान  थी .
मरी तब भी नहीं 
शायद इस दुनिया से लड़ने का 
पूर्वाभास उसकी आत्मा को हो चुका था.
किसी और आँचल में 
वक़्त ने उसको डाल दिया।
रुई के फाहों से 
सूखे पपड़ाये होंठों को खोल कर 
चंद  बूँदें दूध की डाली।
फिर गर्म पानी से धोये घाव उसके 
और फिर सीने से लगा कर सुला दिया। 
एक आँचल में फेंका 
दूसरे ने फैला कर 
समेट  लिया .
ऐसे ही कितनी जानें ?
दम तोड़ देती हैं ,
और कितनी 
पा जाती हैं दूसरा आँचल .
फिर एक बार 
प्रश्न उठा है,
आखिर कब तक ?
इस तरह से 
एक जननी भावी जननी को 
इस दुनियां में आते ही 
ख़त्म करने के प्रयास में 
असफल होती रहेगी। 
क्योंकि सृष्टि को 
अभी चलते रहना है 
तू न सही कोई और सही 
इन भावी जननियों को 
कोई तो आँचल में 
छिपा कर पलेगा .
इस धरती पर 
इसी तरह से 
बार बार 
तिरस्कार के बाद भी 
आती रहेंगी और अपने नाम का 
परचम यही लहराती रहेंगी।