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सोमवार, 25 जुलाई 2011

फासले !


फासले नहीं बनते
मीलों और कोसों से
तार मन के
जहाँ जुड़ते हैं
सारे फासले ख़त्म हो जाते हैं।
ये तार ही तो है -
रोते हुए के आँसू,
पोंछते हैं बार बार ,
सिर पर हाथ फिरा कर
दिलासा दे जाते हैं।
दूर क्यों जाएँ?
देखिये न
जहाँ मिलती हैं
दीवार से दीवारें
औ द्वार द्वार जुड़े हैं
फासले मीलों तक पसरे हैं,
मुँह घुमा कर गुजर जाते हैं,
सिसकियों पर मुस्कराते हैं,
ये फासले
होते हैं कितने लम्बे
इंसान के दिलों को तक तोड़ जाते हैं।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

मेरा वजूद 1

मैं सोचती हूँ
अतीत से वर्तमान तक
अपने वजूद को
जो मैंने कभी देखा ही नहीं,
जन्म से अबतक
एक न एक रिश्ते के लिबास में
लिपटी अनुशरण करती रही.
मैंने कब सोचा?
क्या चाहा?
क्या पाया?
किसी ने नहीं देखा
मैं भी पागल सी
उनकी हंसी में हंसती रही
उनके ग़मों में रोती रही.
आज मेरी आत्मा
चीत्कार कर उठीखो कर अपनी अहमियत
अपने वजूद की
मांग रही है
मुझसे हिसाब जिन्दगी का
कहाँ से लाऊं?
मेरा हिस्से में तो
कुछ भी नहीं आया.
जीवन भर
बाप की बेटी,
भाई की बहन,
पति की पत्नी
बेटे की माँ,
यही तो मेरा परिचय रहा
मेरा वजूद क्या था?
इनसे लिपटे दायित्वों कि पूर्ति
इनकी खुशी पर न्योछावर होना
वजूद की पहचान कौन देगा?
अरे ये भी नहीं सुना,
मेरे पीछे मेरी
बेटी, बहन, पत्नी या माँ भी है.
मेरा वजूद भी
समुद्र में मिलने वाली
सरिता सा
हो चुका था .
जीवन समुद्र था
औ मैं एक सरिता
फिर सच वही हुआ
पानी में मिलकर पानी
अंजाम ये कि पानी
मैं उस सागर में खो गयी
न वजूद था और न मैं थी.

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कुछ ऐसे ही.

खाली हाथ खाली मन खाली खाली सा चमन ,
न अब इसमें खिलती हैं कलियाँ बसंत में ,
नजर कुछ ऐसी लगी दुनियाँ की खुशियों को मेरी,
बस जो भी आता है खालीपन ही दे जाता है अंत में।
* * * * * *
दुनियाँ कहती है बस एक बार तो मुस्कराओ
बाग़ के फूलों सी सुबह सुबह तुम भी खिल जाओ ,
मुस्कराने की कोशिश इस कदार नाकाम हुई ,
कि खुश तो बहुत हुई तो भी आंसूं ही छलक आये।

* * * * * *
कुछ ऐसे ही रच जाता है बैठे बैठे कभी कभी,
जिसमें पीड़ा किसी की और आँसू किसी के होते हैं,
कब उनको अपने में ढाल कर हमने जी लिया,
गम उनका और अपने दिल पर लेकर हम रोते हैं।

* * * * * *
वादा किया था एक दिन आयेंगे lautkar ,
चौखट पर टिके हुए मुझे वर्षों गुजर gaye ,
पगडण्डी से उड़ाती हुई धूल देखकर लगता है
शायद उनको वादे का इन्तजार पता नहीं ।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

जीत का जश्न !

एक गरीब और विकलांग बच्चे की जीत का जश्न कुछ इस तरह मनाया हमने की आँखें तो भरी हीकुछ कलम भी कह उठी



राहों में बिछे
काँटों की चुभन
'
पैरों से रिसते लहू
से निकली
घावों की पीड़ा,
हौसलों की राह में
रोड़े बन जाती है?
नहीं
हौसले जमीन पर
कब चलने देते हैं,
यही तो
मन के पर बनकर
आकाश में उड़ान
भरते हुए
कहीं और ले जाते हैं
जहाँ पहुँच कर
छलक पड़ती हैं आँखें
अभावों के पत्थर
विरोध के स्वर
कटाक्षों के तीरों से
आहट अंतर्मन
मंजिल पर पहुँच कर
आखिर रो ही देता है
लेकिन ये आँसू
औरों को
रुला जाते हैं
फिर ढेरों
आशीष और
सर पर रखे हाथ
जीत का जश्न मनाते हैं