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बुधवार, 24 मार्च 2010

ये अश्क दरिया है !

वो कला दीर्घा
स्कूल के बच्चों की 
मन मोहक तस्वीरें
बाल मन, कच्चे भाव
फिर भी 
बहुत बारीकी से उकेरा था.
अपनी कल्पनाओं के 
अपनी संवेदनाओं के
औ' भावनाओं के
प्रतिबिम्ब बना -
कहीं शाम तो 
कहीं सवेरा  बिखेरा था.
एक कोने में रखी 
एक कृति 
जिसमें 
एक मोमबत्ती जलकर 
बहा रही थी मोम का दरिया,
साथ में खामोश 
एक नारी की आँखों से 
झरते अश्कों की लड़ियों से
बह रहा अश्क का दरिया था.
पास में बैठी 
खामोश बाला ने 
अपनी परिकल्पना को
यूं  शब्दों में ढाला था --
'ये मेरी माँ है,
जो खामोश उम्र भर
रोती रही,
ये दरिया मैंने बनाया है.
रोकर भी
हमें अच्छा बनने की
सीख देती रही,
अँधेरे रास्तों में 
रोशनी की किरण बनी रही,
एक मोमबत्ती की तरह 
जो दूसरों को
रोशनी देने के लिए
खुद जलकर बह जाती है,
अपने अस्तित्व को 
ख़त्म कर देती है.
दोनों का जीवन 
एक जैसा ही है न.
मुझे जो लगा
मैंने उसी को बनाया है
माँ के साथ 
इस मोमबत्ती को सजाया है.................'

मंगलवार, 23 मार्च 2010

सवाल गुरुओं से !

 बहुत साल पहले
जब ये सब नहीं हुआ था,
होता तब भी था ,
किन्तु परदे में छुपा था.
मेरा मन तब भी
इनसे खफा था.
वह प्रवचन दे रहा था
भीड़ से भरे पंडाल में
गुरु की वाणी
ईश्वर का आदेश
तभी मेरा अंतर बोला -
'चाहे रखा हो
बहुरुपये ने वो वेश?'
आत्मा शुद्ध हो
वाणी औ' मन भी 
कभी कटु न बोलो,
ह्रदय किसी का
तुम्हारे वचनों से 
व्यथित न हो.
जो भी अर्जित करो
धर्म, धन या धैर्य
कुछ अंश उसका
औरो पर व्यय करो.
फिर मन बोल उठा -
'पर
जो तुम कमा रहे हो
वहा कहाँ जा रहा है?
साथ में ये 
सुंदरियों का हुजूम
जिन्हें सेविकाएँ कर रहे हो
कौन सी सेवा करती हैं?'
इन प्रश्नों का उत्तर
इस प्रवचन के बीच 
कुछ और भी उठा रहे थे.
आत्मा की शुद्धि की
बात करने वाले 
क्या कभी खुद भी अपनाया है.
ये उपदेश हमें देने के स्थान पर
कभी खुद पर लिए हैं
जानो  अपने अंतर में 
खुद क्या हो?
फल, मेवा, मिष्ठान के
भोग लगाने वाले
क्या त्यागा तुमने?
भोग या योग?'
फिर बोले वे
भोग त्याग कर 
योग की शरण में जाओ,
वही कल्याण हो सकता है,
मुक्ति का वही एक रास्ता है.
रुका नहीं मन
फिर चिहुक उठा -
'अरे बाबा
अपने भोग की बात करो
त्यागा या नहीं
ये हम नहीं साक्ष्य कह रहे हैं.
वे जो तुम्हारी छाया में जी रहे हैं.
कितना प्रसाद पा रहे हैं.
गुरु के दर्शन,
गुरु का सानिंध्य,
गुरु का आशीर्वाद,
कौन ले रहा है?
इस भगवा और श्वेत 
वस्त्रों के पीछे
कितने काम रंगीन हो रहे हैं
ये हम आज नहीं 
कल खोज लेंगे.
इनके पीछे कितने और कैसे
कर्म संगीन हो रहे हैं?' 
अंतर की आवाज चुगली 
कर गयी.
किसी साधक ने सुन लिया
कितने साधक
उस दिन टूट पड़े थे
मुझे लहूलुहान कर दिया
वर्षों गुजर गए
आज सच्चाई खुल रही है
तो उनके और सबके साधक
सिर पीट रहे हैं,
क्या पता हम भी 
इसी तरह से छले  जा रहे हों?
मेरा अंतर न तब 
न अब
मानव से ऊपर किसी मानव को 
स्वीकार नहीं करता .
सिर्फ एक सच्चा मानव ही पूज्य है.
उसके लिए वस्त्रों के बदलने  की
जरूरत नहीं होती,
अपने सद्कर्मों को
दिखाने के लिए पंडालों 
की भीड़ भी नहीं होती.
कर्म खुद बोलते हैं
अपने मुंह से न सही
औरों कि जुबान से बोलते हैं.
जीवन में सिर्फ
एक बार किसी के दुःख बांटों 
बहते हुए आंसुओं को पोंछो 
मेरी नजर में
तुमसा वन्दनीय और पूज्यनीय 
मानव कोई नहीं.
इस लिए सिर्फ 
मानव बनो.  

सोमवार, 22 मार्च 2010

कल्पना - नए जहाँ की !

आओ रचें  एक विश्व ऐसा, 
एक लक्ष्य से जुड़ें सभी,
व्योम के विस्तार सा,
संसृति के विचार सा
संयमित एक आचार सा
संतुलित व्यवहार सा,
हो विश्व एक परिवार सा.
यत्न करें  संग-संग चलें,
संयुक्त ही सब प्रयत्न हों,
धीर धर के निपट लें
यक्ष प्रश्नों से सभी,
उत्तर सभी के पास हों ,
शंकाओं  की दिशा में
उलझ कर सिर नत न हो.
संकीर्णता  से दूर हों,
विस्तृत सोच  भरपूर हो,
अभिशाप हैं जो धरा के
शीश उनके तो अब चूर हो.
प्रगति के हर दिशा के
दूर सभी अवरोध हों,
प्रेम,विश्वास,सहयोग 
इस दिशा में न विरोध हों.

विश्व के विस्तार में
हर देश एक परिवार हो,
हित  सभी के जुड़ें वही
जहाँ सभी का विस्तार हो.
समवेत स्वर में मुखर हों
गूंजें दिशाएं गान से.
अभिव्यक्ति ऐसी हो सदा ,
हर स्वर में नया सहकार हो.
न हो द्विअर्थी वचन,
जिनकी हो शैली जटिल,
मिलें तो बस प्रेम हो,
न बम , न विस्फोट ,
कहीं कोई गोली बारी न हो.
विश्व के परिवार में 
कोई किसी पर भारी न हो.
सब जुड़ें , सब जुटें ,
बस कहीं कोई गाली न हो.
आओ रचें एक विश्व ऐसा - जहाँ सिर्फ इंसान हो.

गुरुवार, 18 मार्च 2010

ये तो सिर्फ व्यामोह है!

वह माली बगीचे का
चुन चुन कर रोपी पौध थी,
फिर दिया पानी और खाद थी,
जिससे मिलें उन्नत सभी
पुष्पों, पलों से लदे वृक्ष.
पल्लवित पुष्पित हुए वे सभी
हर्ष से माली की आँखें 
चमकने   लगीं.
चुन-चुन कर पुष्पों के 
हार बना पहनेगा वो 
ऐसे सजीले स्वप्न सा
खोया किन्हीं ख्यालों में था.
सहसा कोई काँटा  चुभा
फूलों के बीच में था फंसा
सिसकारी मुंह से निकली
एक बूँद रक्त की
धरा पर चू  पड़ी
इस भरे बगीचे में
अपनी संतति से पोषित हुए
वृक्ष भी खड़े खामोश हैं.
कुछ तो लगता है 
की जैसे वे सभी बेहोश हों.
डबडबाई आँखों से
माली देखता रह गया
कोई भी उसके आंसुओं  के
मर्म को समझा न था.
जीवन निछावर कर गया
अब लगा
कि  वह छल गया.
ये तो सिर्फ व्यामोह है.
जीवन का दिन तो ढल गया.
न तेरा रहा
न मेरा रहा.
ये बगीचा तो अब फल गया.
ये बगीचा तो अब फल गया.

बुधवार, 10 मार्च 2010

अब नीलकंठ बनना नहीं!

अरे सरस्वती के पुत्रो/पुत्रियो
मत रचो ऐसा 
कि
सरस्वती का अपमान हो.
रचना वह नहीं
जो सिर्फ प्रशस्ति हो
रचना वो है
जिसमें समाई समष्टि हो.
अनर्गल,
निर्थक,
निरुद्देश्य,
इस कलम को उठाना 
उपासना नहीं,
उसका अपमान है.
जैसे वाणी
चाहे मधुर बोले 
या उगले गरल
सबकी अपनी अपनी मर्जी.
किन्तु
गरल के भय से 
जो खामोश हैं
वे गूंगे नहीं है,
लेकिन धैर्य है उनमें.
गरल कब तक उगालोगे 
एक दिन
वही 
विषधर बन
तुम्हें ही डस लेगा.
वे निर्विकार,
निस्पृह,
निर्दोष
अमृतवाणी से
अमृत बहाकर 
तुम्हें भी
संजीवनी देकर 
जीवन देने को
सदैव तत्पर रहते हैं.
बस विषधर की
केंचुल त्यागने का
साहस तो हो तुममें.
बैर किसी से नहीं
बस विष से है.
उसे उगलना बंद करो 
निगलने को
वो तैयार नहीं.
नीलकंठ अब बनना नहीं.
सृष्टि के आधार 
उन्हें संयुक्त ही रहने दो 
मत खींचो रेखा 
कि वे बँट जाएँ.
बिखर जायेगी ये संसृति 
हाथ किसी के कुछ न लगेगा.
इस पृथ्वी और संसृति को
सुख - शांति का दान दो, 
अमरता का वरदान दो.

सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस का शतक

एक शतक 
ये भी बना,
क्या सुलझी है सौ गुत्थियाँ भी?
शायद नहीं?
इसको हमने कब जाना?
जानकर भी 
 कभी अपना हक़ ही  माना,
शायद  नहीं?
संकल्प लिए गए,
कर्म से जूझे भी,
कभी गिरे उठे भी,
पर
हम अभी भी
सबको दिशा नहीं दे पाए
उन्हें मुक्त नहीं करा पाए
उन्हें जहाँ मुक्त होना है
बगावत का झंडा नहीं,
उन्हें मानव होने के
अर्थ समझने है.
दायित्वों के बोझ 
सक्षमता से ढोने के
गुर समझने हैं.
खुली हवा में 
सांस लेने की
दशाओं और दिशाओं के
रहस्य  समझने हैं.
विश्व में
अकेले नहीं
बस अपने आस-पास
पैरों तले की जमीन का
अहसास समझना है
महिला दिवस 
कोई जश्न या उत्सव नहीं
समता का विश्वास
अपने मानस  पटल पर
बिठा  लेने के
आभास समझने हैं.
अपने होने के
जीने के
जीवन देने के
और उन जीवन को
एक बेहतर मानव
बनाने की
राह  में
बिछे कंटकों से
बचने के 
रास्ते समझने हैं.

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

तिनका - तिनका आशियाँ!

वो  
आकाश में 
गुजरते हर जहाज को 
गौर से देखती 
शायद इसी में 
उसका बेटा होगा?
यही सुना था,
उसका बेटा 
हवाई जहाज की फौज में गया है.
अब की आया 
तो बेड़ियाँ डाल दूँगी.
घर-आँगन खाली-खाली सा 
अब देखा नहीं जाता.
शहनाई  औ'ढोलक की 
थाप की अनुगूँज के
सुखद अहसास से
सिहर जाती .
इससे बेखबर  कि
हवाई जहाज में बैठ 
बेटा अपनी ऊँची उड़ान में
कल ही 
बहुत दूर चला गया.
दरवाजे पर फौज की
गाड़ियाँ आने लगी,
भीड़ लग गयी
जब ताबूत उतारा गया
तो नहीं जानती थी 
इस बक्शे में क्या है?
कुछ भेजा होगा
मेरे लाल ने
छू छू कर देखने लगी
जब खोल कर
 फूलों से लदा
शव बाहर निकला

फटी आँखों से देखती रही
खामोश हो गयी
उठ-उठ मेरे लाल
झकझोरती 
वह बेसहारा
रो नहीं सिर्फ  चीख रही थी.
'मेरे लाल को क्या हुआ?
सब फौजियों से पूछ रही थी.
और वे सब खामोश
सर झुकाए खड़े
गाँव के मुखिया ने
गाँव के गौरव को
श्रद्धांजलि दी.
अमर रहे - अमर रहे
के नारों की गूँज 
पिघले शीशे की तरह
उसके कानों को बेधते रहे 
उस शहीद की शव यात्रा ने
कहीं देश को बचाया
पर उस विधवा का 
बिखर गया
तिनके -तिनके आशियाँ.