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शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

पूर्व और पश्चिम !

हम पश्चिम को  
हसरत भरी 
निगाहों से देखते रहे . 
धीरे धीरे जीवन में 
उसको उतारने लगे 
पूरा नहीं तो 
अधकचरा हे सही 
उसे अपनाने लगे
खुद को प्रगतिशील कहलाने का 
शौक जो चढ़ा  था ,
बच्चों को दे दी आजादी 
अपने  मन  से जीने की .
लेकिन 
 बस  चूक गए 
उन्हें पश्चिम की तरह 
अनुशासन नहीं सिखाया ,
आत्मनिर्भर बनना  नहीं सिखाया .
अधकचरी संस्कृति को लेकर 
महत्वकांक्षी  तो बने 
लेकिन दिशा  भटकने लगे .
हमने उन्हें पश्चिम की तरह 
परिश्रम नहीं सिखाया।
जरूरत नहीं थी .
हम सक्षम जो हैं 
उन्हें उड़ने के लिए पंख देने को
सब कुछ मुहैय्या  करा दिया 
लड़खड़ाने लगे वे 
बहकने लगे कदम कदम पर 
क्योंकि जमीन तो 
उस रंग में न रंगी थी।
खुद भी  उसी  रंग में रंगने के लिए 
खुद को समर्थ कहलाने  के लिए , 
 पत्नी के रहते  
एक  और घर  बसाने  लगे। 
पश्चिम सा साहस  न जुटा  पाए .
चोरी छिपे जीते रहे,
जब खुला तो बिखरा परिवार 
तुम नहीं पत्नी दोषी बनी 
बांध कर नहीं रख पायी,
कोई जानवर नहीं 
कि  खूंटे से बाँध कर रखा  जाए उसे ।
पत्नी पश्चिम से नहीं थी।
कमाती वह नहीं है,
फिर वह कहाँ  जाए?
पश्चिम तो नहीं कि 
बच्चों को छोड़ दे  
कहीं और चली जाय.
क्योंकि उसके आगे 
एक प्रश्न बड़ा खड़ा है 
उसके चरित्र का 
वो कुछ नहीं कर सकती 
क्योंकि वो तो पश्चिम में नहीं जी रही है।
अगर वो ऐसा कर जाती 
तो समाज और अख़बार की 
सुर्खियाँ बन जाती ,
लेकिन पति 
दोहरा जीवन जीते हैं 
जिन्दगी को एन्जॉय करते हैं 
एक की उजाड़ कर 
दूसरे की मांग भरते है।

रविवार, 25 अगस्त 2013

हाइकू !

 रोज पढ़ती हूँ कि मौत ने घर चिराग बुझा दिया , कोई लहरों में समां गया , कितनों की मांग सूनी हो गयी , असाध्य रोग से परेशान ने मौत को गले लगाया . किसी ट्रक ने किसी को कुचल कर बच्चों के मुंह से निवाला  छीन लिया और न जाने क्या क्या ? बस ये शब्द ऐसे परिभाषित हो उठा और  हाइकू के रूप में ---

मौत 
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मौत किसी की 
बरबादी होती है 
एक घर की। 
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मौत होती है 
किसी सुहागन की 
उजड़ी मांग। 
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इसके आते 
मुक्ति होगी कष्टों से 
राहत देगी। 
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उसकी मौत 
किसी को बोझ से ही 
मुक्ति मिलेगी। 
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अकाल मृत्यु 
भटकती आत्मा का 
वनवास है। 
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महलों में से 
सड़क पर आते 
ऐसे भी देखा। 
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कुछ मुस्कराए 
कुछ ने आंसू गिराये 
वह तो गया। 
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श्मशान में ही
विरक्ति बसती है 
जीते सभी है। 
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मौत तो है ही 
जिन्दगी की मंजिल 
पाना है इति। 
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सोमवार, 19 अगस्त 2013

दर्द अकेलेपन का !



दर्द
अकेलेपन का
कभी किसी ने सहा है,
सिर्फ इंसान ही नहीं
सभी इस दंश को जीते हैं।
इस धरा के
शाश्वत सत्य के चलते
अकेले आये हैं
और अकेले ही जायेंगे।
इस एकाकीपन  के दंश को
जिसने भी जिया
जीते हैं और फिर टूट जाते हैं।
भरे बाग़ में खड़ा
ठूँठ , जिसे
किसी पेड़ की शाखाएं
हरीतिमा के बिना  छू नहीं पाती  है।
सिमट जाते हैं पेड़
अपने में ही
इस डर  से कि  कहीं
ये सूखा  रोग
उसके हरे भरे कलेबर को
सुखा न दे कहीं।



निर्जन पगडंडी उदास सी
राही की राह  देखती हैं
जब उड़ती है  धूल
मानव , वाहन या हवाओं से
जी उठती हैं।
अब न धूल उड़ाती है हवाएं
न कोई राही गुजरता है
यहाँ से 
बस सुनसान से
अंधेरों का गम
उनको भी खाए जाता है .

दो जोड़ी
उदास आँखें
दरवाजे पर  बैठीं
किसी के  आने के इन्तजार में
पथरा गयीं है .
राह देखते देखते 
और अब खामोश सी 
निष्प्रभ सी स्थिर हो चुकी है ,
शायद जाने का वक़्त आ गया है . 





शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

धरती का बोझ !

विशाल और महान
कब इंसान
आकार  से हुआ है ?
नहीं तो रावण का
कभी पराभव न होता .
ऊँचे कद से
सिर्फ ऊपर का देख सकते हैं
नीचे तो इंसान भी
अदने से औ'
छोटे नजर आते हैं।
भूल जाते हैं वे
मंजिले भले ऊंची हो
जमी से जुड़ कर चलो तो
कभी ठोकर नहीं लगती
कदम तो बढ़ते ही हैं
पर्वतों तक जाने वाले
रास्ते भी जमीन से ही जाते हैं।
कदम बढ़ते हैं
हौसलों से
सोच से
और आपकी इंसानियत से
नहीं तो
निम्न सोच ,
गिरे आचरण वाले
महलों में रहें
या उड़े आसमान में
धरती के बिना
इंसान दफन नहीं होता .
उसका धरती से रिश्ता
आने से लेकर
जाने तक
कभी ख़त्म नहीं होता।
इसलिए धरती पर रह कर
धरती पर ही चलें
तो आसमान की ऊँचाइयाँ भी
अपनी हो सकती है .
लेकिन
दर्प , अहंकार और मद
भ्रमित इंसान
जब धरती से उठ जाता है
तो 
धरती भी अपने को
उसके बोझ से 
मुक्त पाकर खुद को
हल्का महसूस करती है।