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सोमवार, 24 मार्च 2014

वे यकीन नहीं करते !

                                  कलम का एक लम्बा विराम और फिर उठ कर चलने का प्रवाह सब अपना ही मन है।  कहीं बिंधी रही जिंदगी किसी  काम में - फिर चल पड़ा सफर और साथ हम आपके हैं .

आज उतरते हुए गाड़ी  से जो उनने देखा ,
कभी मीलों पैदल चलने से पड़े छालों की बात
सुनकर मेरी ही बातों पर वे यकीन नहीं करते।


आज के इस रोशनी से जगमगाते हुए घर ,
कभी एक लालटेन में पढ़े हैं चार बच्चे घर में
 बार बार कहने पर भी वे यकीन नहीं करते।

एक ही वक़्त जिंदगी का मेरी ऐसा भी था ,
ऑफिस में की बोर्ड पर चलने वाली ये अंगुलियां ,
आँगन गोबर से लीपती थी यकीन नहीं करते।

जिंदगी में अपनी देखे हैं कैसे कैसे मंजर ,
इम्तिहान लेने को खड़े थे कुछ बहुत अपने ,
हारे नहीं हम जीत कर निकले वे यकीन नहीं करते।