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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष के संकल्प !


बीते दशकों इसी तरह
नव वर्ष के आते जाते , 
इस वर्ष कुछ ऐसा मनाएं,
संकल्पों के दशक बना लें.

दीप ऐसा एक मन में जला लें,
कलुष मिटाकर धवल बना लें.

दृढ स्तम्भ बने हम ऐसा 
थाम जिसे निर्बल पल जाएँ.

ज्योति प्रेम की ऐसे चमके,
कटुता की कालिख मिट जाए.

एक धर्म की बात करें हम,
मानव ही मानव हो जिसमें.

अमन-चैन औ' खुशहाली में,
हर्षित हो जीवन दिन पर दिन.

बाँट सकें दुःख दर्द किसी का,
आँखों की हम नमी  सुखा दें.

भटक गए जो कदम बहक कर,
उनको सही मार्ग दिखला दें.

सम्मान सभी को दें हम इतना,
हम भी इसके अधिकारी बन जाएँ.

समता का भाव रहे मन में,
मित्र शत्रु के भेद  भुला दें.

चाहे जितने शूल हों पथ पर,
राहों को हम सुगम बनायें.

चाहूं बस इतना ईश्वर से भी,
इन संकल्पों को पूरा कर पायें.


२३ मार्च पर शहीदों को नमन !

मुझे लिखते देख मेरी सहेली बोली - क्या कर rahi ho? उसे bataya ki aaj शहीद दिवस है कुछ लिखना चाह रही हूँ। तुरंत वह बोली - साल में वही दिन तो आते हैं और तुम हर बार वही लिख कर डालती रहती हो। इससे क्या फायदा? कुछ नया हो तो लिखो, मुझे मजा नहीं आता । मैं उसे कैसे समझाती कि मैं जो लिख रही हूँ वह एक जरूरी चीज है लेकिन गद्य भूल कर लिख बैठी ये पंक्तियाँ --

इतिहास बदल नहीं करता है,
वे तारीखें जो लिखी हैं इसमें,
उनकी इबारत पत्थर पर लिखी है ,
' उस पत्थर पर हमारी
आज़ादी कि इमारत खड़ी है
हम दुहराते हैं उन तारीखों को जरूर
जिन्हें इतिहास में मील के पत्थर भी कहा करते हैं,
घटनाएँ कुछ ऐसी घट जाती हैं,
जो तारीखों का वजन बढ़ा देती हैं।
इतिहास के पन्नों पर वे ही दिन
मजबूर कर देते हैं मानव और मानस को
फिर एक बार उस इबारत को दुहरा लें
शहीद वही, शहादत वही, इतिहास भी वही,
लेकिन इस तारीख के जिक्र पर,
सर झुक ही जाता है इज्जत से
क्योंकि
हमारा जमीर इनको याद करते ही
मजबूर कर देता है नमन करने को
मजबूर कर देता है नमन करने को

मेरी आज २३ मार्च को उनके बलिदान दिवस पर अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि।

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

अमन के दुश्मन !


पौध अमन की इस बगिया में
हम रोपने में लगे हैं,
सबने मिल कर
हजारों पौध तैयार कीं.
कोई जानवर इसको रौंदे न -
खाने की जुर्रत न करे -
अपने नापाक इरादों से कुचले न
रोप कर घेरा और बाड़ लगाई.
फिर अचानक एक शाम
दहशतगर्दों ने अपने
नापाक इरादों से
सिर उठाया औ'
हमारी पौध पर
तेज़ाब उड़ेल दिया,
जला कर चले गए.
धृष्टता   ऐसी
सीना ठोक कर कह रहे है,
'हमने जलाई  है,
तुम्हारी फसल हम
बर्बाद कर देंगे.'
अमन की जड़ें क्या इतनी कमजोर है?
हम पहचान कर भी -
इनसे अनजान क्यों बनते हैं?
ऐसा नहीं है
वे हमारे बीच रहते हैं,
वे हमारे ही घरों में रहते हैं,
फिर क्यों इन मौत के सौदागरों को
हम पहचान नहीं पाते हैं.
इनके चेहरे पर पैबस्त मुखौटे
इतने गहरे हैं कि
इनके असली चेहरे हम
पहचान नहीं पाते हैं.
हमें अपनी आँखों पर
एक चश्मा लगाना होगा.
हमारे बीच में पलने वाले
इन हैवानों को
अलग करना होगा.
क्योंकि ये
किसी के नहीं होते
हमारे आपके क्या होंगे?
इनका कोई वतन, जमीर या फिर मजहब नहीं होता.
जिसकी आड़ में ये बीज बो रहे हैं,
उसमें भी इनके लिए कोई
जगह मुस्तकिल नहीं है.
ये सौदागर है और मौत बेचते हैं
अपने लिए तो खरीद कर पहले ही रखे हैं.
पता नहीं कौन सा लम्हा
इनकी जिन्दगी की धरोहर होगा.
फिर उस लाश को लेने वाला भी कोई न होगा. के दुश्मन

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

तार तार शब्दों की गरिमा !

पूजा, दिव्या, वंदना, अर्चना, नमिता
तार तार कर दिया
इन शब्दों की गरिमा को,
खून के आंसूं रो रहे हैं
ये मानव जीवन के नमित  शब्द .
अरे छोड़ा तो नहीं
सीता, राधा, गिरिजा और सरस्वती को भी
जिन्हें हम घर और मंदिर में
प्रतिष्टित कर पूजते हैं.
ऐसे ही नहीं
रो रहा है हर शब्द,
मानव के नाम पर कलंक
इन विकृत मानसिकता वालों को
उनमें बेटी नजर नहीं आई,
कन्या नजर नहीं आई,
देवी नजर नहीं आई,
इन तीनों के ही रूप थीं -
वे मासूम बच्चियां.
अपनी माँ के आँचल से
अभी ही बाहर निकली थीं.
अरे निराधमों, दुराचारिओं
ये बताओ
क्या अपनी बेटी की भी
यही दुर्दशा करने की
हिम्मत और कुब्बत है तुममें
फिर जाओ और उन्हें भी
इसी तरह से अपनी अमानुषिक  मनोवृत्ति का
शिकार बनाओ और
छोड़ दो गला घोंट कर,
किसी का सिर तोड़ दो,
किसी को जिन्दा जला  दो,
बहुत से विकल्प हैं तुम्हारे आगे.
अरे शर्म नहीं आई,
कल तक बेटी बेटी कहकर
सिर पर हाथ फिराते  रहे,
टाफी, चाकलेट या आइसक्रीम देकर
कौन सा प्यार जता रहे थे?
ये वे नहीं जानती थीं.
इसके पीछे तुम्हारी मंशा क्या है?
वे तो पिता की तरह समझती रहीं,
और तुमने मौका देखकर
उनको रौंदकर मार दिया.
अब हर आदमी वहशी है,
अपनी बेटियों को क्या सिर्फ आँचल से विदा कर दें
या फिर पैदा होते ही,
फिर से गला घोंटने के इतिहास को दुहराने लगें.
अरे वहशियों इसका जवाब तुम्हें ही देना होगा.
नहीं तो खुद ही कालिख पोत कर
कहीं फाँसी पर लटक जाओ.
अगर सामने मानवता के आये
तो पत्थरों से मार दिए जाओगे.
लगता है कि इतिहास
फिर दुहराया जानेवाला है.
बीता कल फिर से आनेवाला है.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अनुत्तरित प्रश्न !


उस वक्त बीच राह में
तुमने साथ छोड़ा था,
और मैं बात जोहती रही
सालों गुजर गए
फिर हार कर
अपनी राहें खुदबखुद तलाश कर
हिम्मत बटोर कर
आगे चल पड़ी.
फिर भी मेरे जेहन में
कुछ अनुत्तरित प्रश्न
आज भी भटक रहे हैं.
मैंने उन्हें संजो कर रखा है.
सोचती रही जिन्दगी भर,
कभी कहीं किसी मोड़ पर
स्वरचित वह नाम,
तुम्हारा चेहरा मिल जाएगा तो -
वही प्रश्न लेकर पूछूंगी
आख़िर क्यों?
आख़िर क्यों?
साथ छोड़ा , मुँह मोड़ा,
बता तो देते
रास्ते नहीं रोकती
सबकी अपनी राहें होती हैं,
बताकर छोड़ते तो
प्रश्नों के बोझ को
यूँ ही ढ़ोती न रहती,
सोच के यूँ ही
तुम्हें खोजती न रहती.
कब मिलोगे?
या फिर इन प्रश्नों का बोझ
जीवन भर ढोते ढोते मैं
अपने सफर का अंत कर दूँगी.

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कैसी दीवाली - कौन सी लक्ष्मी ?

सजा दो चौखटें घर की,
रंगोली से द्वार सजाओ,
हर कोना घर का महके फूलों से,
मुडेरों पर दीप इतने सजाओ
रोशन हर दिशा हो जाये.
आज लक्ष्मी देख कर सजावट
बस इसी घर में बस जाएँ.
मुखिया घर के
नौकरों से कहते घूम रहे थे. 
तभी खबर आई,
बहू ने मायके में बच्ची को जन्म दिया है,
समधी जी बोले - बधाई हो, 
आपके घर लक्ष्मी  जी पधारी हैं. 
फ़ोन पर ही चिल्लाये - काहे की लक्ष्मी  ?
ये तो लक्ष्मी जाने का रास्ता खुल गया.
अरे डिग्री बन कर आई है. 
तुम्हें लक्ष्मी लग रही हो तो -
मय माँ के उसको वही रख लेना. 
नाना अवाक् !
अरे मूर्ख !
अनदेखी लक्ष्मी का इतना भव्य स्वागत
द्वार तक फूलों के रास्ते बने हैं
जन्मी हुई लक्ष्मी का तिरस्कार क्यों?
खबर मिलते ही कन्या की
ये लटके हुए चेहरे लेकर
मातम सा माहौल  बना  क्यों?
वह गुण, बुद्धि स्वरूप में तो
बालक की तरह ही आई है,
वह चाहेगी वही जो तुम पर
बेटे को देने के लिए है 
माँ के आँचल में दुबक कर
दूध ही तो पीना है उसे भी,
आते ही गिन्नियां तो नहीं मांगेगी तुमसे
उससे आने पर ये तल्खियाँ  फिर क्यों? 
बालक भी जन्मते ही इतना ही चाहेगा,
आते ही कहीं से लक्ष्मी का अम्बार 
तुम्हें घर नहीं लग जायेगा.
फिर गिन्नियों की खनक 
सुनाई देने लगती है क्यों?
देखोगे भो गिन्नी या फिर खोखले हो जाओगे 
भविष्य के गर्भ में है 
अभी से ये  चिंता फिर क्यों ?
बड़े होते ही चल देंगे,
सुन कर अनसुना कर देंगे,
अवज्ञा कौन करेगा?
ये मालूम है तुमको,
कन्या देहलीज के भीतर भी देखेगी तुमको
बड़े होकर कष्टों को बांटेगी भी,  
इस अबोध कन्या से बेरुखी फिर क्यों?
अब आँखें खोलो 
अपनी दृष्टि जग पर डालो,
वंश की परंपरा का ढोल पीटना
अब बंद भी कर दो.
वह लक्ष्मी ही है स्वीकारो  उसे.
सच के सामने जुबान खामोश है क्यों?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

आत्मा का शाप !


नदी के किनारे 
लाशें  मछलियों की
करुण कहानी 
सुनाती है अपनी.
यही हैं मानव 
करते हैं विषैला 
ये जीवन हमारा.
घुट घुट निकलता 
जब दम हमारा
टूटती हुई साँसे हमारी
बहुत शाप देती हैं इनको  ,
कहाँ तक बचोगे?
इसी जल के कारण 
तुम्हें में से कितने 
अपंग हो रहे हैं,
रोगों से लड़ते ,
घिसट घिसट कर 
जीवन से अपने तंग हो रहे हैं.
हम तो तड़प कर
जहाँ से गए हैं,
तुम तड़प तड़प कर
जीते रहोगे.
सिन्धु है विषैला,
सरिता भी विष भरी है,
कूपों में जीवन 
लाओगे कहाँ से?
कर्मों से तुम्हारे
प्रकृति भी हारी है,
खुद के लिए जीवन
खरीदोगे कहाँ से?
खनकते हुए सिक्के तो होंगे,
लेकिन वे जीवन 
इस बेजान धरा पर
लाकर के तुमको देंगे कहाँ से?
उजाडा है आँचल तुमने 
धरा का ,

जीवन था इस पर 
बेजुबां प्राणियों का भी
चीखे बहुत थे
मगर ये इंसानों 
कानों पे तुम्हारे हैडफोन लगे थे,
संगीत में उसके 
चीखें हमारी सुनी ही कहाँ थी? 
अपने ही हाथों से 
करते हो पाप तुम
मुक्ति उनसे मिलेगी कहाँ से?
उन मौन आत्माओं का शाप
सुना तो नहीं है,
इसका खामियाजा 
तुम्ही तो भरोगे.
उजाड़ कर वंश हमारे
अपने वंश की 
सलामती चाहते हो.
स्वयं भू हो तुम
इस अखंड धरा के,
मत भूलो
तुमसे भी कोई बड़ा बैठा वहाँ है.
इस प्रकृति से खेल कर
अमन खरीदोगे कहाँ से?
सब कुछ पैसे से मिलता नहीं है,
बना कर खुद तुम पानी
धरा के गर्भ में 
कहाँ से भरोगे?

अट्टालिकाओं के छत  पर 
बैठ निहारोगे पत्थर ,
क्षुधा  मिटाने को कुछ तो चाहिए
मगर फसलें तुम लाओगे कहाँ से?
चाहे रच डालो  इतिहास तुम हजारों
समुद्र, वृक्ष, सरिता के विनाशक 
                                                         कीमत तो इसकी चुकानी पड़ेगी.



बुधवार, 3 नवंबर 2010

                     
         सुंदर दीपों से रोशन हो, हर कोना सबके घर का.
         लक्ष्मी करें कृपा सभी पर,  ढेर रहे घर में धन का,
         मन में सुख शांति हो,  हर  प्रात हो सबके मन का,
          हर दिन हो दीवाली जैसा सुन्दर सबके इस जीवन का.

      दीपावली पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.!

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

माटी के दिए !

कुम्हार की चाक पर
ढलते हुए दिए
आपस में कुछ इस तरह
बात कर रहे थे-
'भाई आज हम साथ साथ
ढल रहे हैं.
पता नहीं कल बिखर कर
कहाँ कहाँ जायेंगे?
पर मेरे भाई एक वादा कर
हम कहीं भी रहें
अपने धर्म को पूरे मन से
जीवन भर निभाएंगे.'

दूसरा बोला -
'दोस्त कैसा जीवन?
एक बार जला कर
कुचल दिए जायेंगे,
माटी से बने हम
फिर माटी में मिल जायेंगे.'
'मन छोटा न करो भाई,
अरे हम तो हैं माटी के,
इस इंसान को तो देखो
बना है पञ्च तत्वों से
करता है प्रपंच
देता है धोखा
बुद्धि से भरा है
किन्तु क्या अमर है?
मिलना उसको भी माटी में है.
हम तो फिर भी रोशन करते हैं
घर दूसरों का ,
अँधेरे में रास्ते दिखा देते हैं.
दो क्षण का ऐसा जीवन
सौ सालों से अच्छा है.'
'भाई अब अफसोस नहीं 
मुझको चंद क्षणों का
रोशन जीवन पसंद है. '

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

ये कैसे रिश्ते?

                    पता नहीं क्यों? कुछ खबरें और कुछ घटनाएँ  कुछ इस तरह से दिल में उतर जाती हैं की रोक नहीं पाती खुद को और न ये कलम रुकने को तैयार होती है.ऐसी ही एक घटना आपसे बाँट रही हूँ लेकिन कुछ कविता के रूप में.
ये कैसे रिश्ते? 
एक विस्फोट हुआ 
औ' जलने लगी दुनियाँ उसकी
वह झोपड़ी में रह गयी,
बचाने को कुछ गृहस्थी और
उठाने लगी थी 
कुछ बक्से में रखे रूपये.
तभी धू धू करता छप्पर 
उसके ऊपर गिरा और 
वह खुद जलने लगी.
कुछ गलत हो रहा था
उसके घर में ,
उसे क्या पता?
दिन भर खेतों में
काम करती और 
रात में लौटती तो 
चूल्हा जला कर पकाती और खिलाती.
वह घर , वह परिवार ,
जो उसने बनाया था
सब ख़त्म हो गया?
पति भाग गया,
बच्चे भाग गए,
ब्याहता बेटी भी 
अपने फंसने के डर से
पति के घर अँधेरे में निकल ली.
पुलिस आई तो
उसके जले शव को
पोस्टमार्टम के   लिए ले गयी. 
कुछ शंका थी,
समाधान भी  उससे ही होना था.
बारूद की गंध से 
कुछ सुराग मिलेगा.
दूसरे दिन 
पोस्टमार्टम हाउस के सामने
कोई नहीं था.
बस पांच औरते आयीं थी.
सोचा कोई घर वाली होंगी,
रिश्तेदार होंगी?
या फिर पड़ोसी होंगी?
पूछा कौन है वे इसकी?
कोई नहीं!
खेत में साथ काम करती थी.
सुना तो देखने आ गयीं.
कल तक तो जिन्दा थी.
रोज मिलते थे,
अब सोचा कि आखिरी दर्शन कर लें.
उसका कोई घर वाला 
कोई भी नहीं आया 
तीन बेटे , दो बेटियाँ ,
और उसका बाप कोई भी नहीं.
इस मिट्टी का क्या करें?
कोई नहीं तो हमको दे दो,
पाँचों ने कन्धा देकर 
उसे श्मशान पहुँचाया.
धोती के छोर में बंधे 
रुपये इकट्ठे किये 
आज तीन दिन की मजदूरी मिली थी.
उसका क्रियाकर्म किया.
दूर देखा तो
उसका बेटा तमाशा देख रहा था.
पुलिस पर नजरें पड़ीं तो 
भाग गया .
ये कौन सा रिश्ता था?
जिसने कन्धा दिया,
तीन दिन की कमाई उसकी
अंत्येष्टि में लगाई
और दो आँसू गिरा कर 
श्रद्धांजलि दे दी.
ये वो रिश्ता है,
जो न खून का है,
न पैसे का है ,
और न ही स्वार्थ का है.
निस्वार्थ, मानवता में लिप्त 
ये रिश्ता ही तो
इस धरती पर टिका है.
जिसने डगमगाती धरा को
संतुलित किया है और
इसी को तो हमने 
मानवता का नाम दिया है.

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

सुकून की दौलत !

अरे मूर्ख इंसान ,
तू भूला है  कहाँ?
जिन्दगी को अपनी
दौलत और ताकत की
नुमाइश बनाये फिरता है .
इससे खरीदी इज्जत तो
कभी ठहरती ही नहीं है,
इसके साथ ही चली जाती है.
वक्त के सागर में
ये रेत सी फिसल जाती है.
रह जाएगा खाली हाथ 
कोई भी न देगा कल तेरा साथ,
क्योंकि इन सबकी कोई 
जिन्दगी नहीं होती.
असली दौलत तो वो है
जो कभी ख़त्म ही नहीं होती है.
हुनर तो ले आ इतना -
जुबां से तेरे फूल झरें,
हाथ उठें तो मांग ले दुआ,
अमन, चैन और खुशहाली के लिए,
सुखा सके आँसू  गीली आँखों के,
उदास चेहरों पे एक मुस्कान तो ला के देख .
फिर झांक अपने ही दिल में
जो सुकून की दौलत हासिल की है,
सिर्फ इंसान बन के जिन्दगी तो गुजार 
तेरे हर ऐसे काम से मिली ये दौलत ,
तुझे इंसान और बस इंसान ही बनाती है.

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

नए रिश्तों की गहराई !

अब ये कैसा मानव हो गया है?
 कुछ भी शेष नहीं,
जन्म  प्रदत्त  रक्त  सम्बन्ध 
तार तार हो  रहे हैं.
न मूल्य, न मान्यताएँ  और न धारणाएं,
सब बदल रहे हैं,
या कहें
उनके स्वरूप बदल रहे हैं.
अब शायद मानव में
रक्त शेष नहीं रहा.
वो जो जन्म से मिला था,
माता पिता ने दिया था
समझदारी आते आते
पानी हो गया.
और फिर वो जो
नए रिश्तों से मिला
विशुद्ध रक्त था.
धीरे धीरे पुराने  पानी की जगह
उस रक्त ने ले ली.
और  रिश्तों की परिभाषा बदल गयी.
माँ-बाप , भाई - बहन
सबकी जगह
नए रिश्तों ने ले ली.
पुराने भाव रंजित रक्त सम्बन्ध
अपनत्व के लिए तरसने लगे.
सबके साथ यही होता है.
वृद्ध माँ-बाप
चेहरा देखते हैं
कब बेटे का मूड ठीक हो,
और अपनी गिरती नजर के लिए
नए चश्मे की  बात कहें.
बुआ के घर में शादी
कब भात पहनाने  के लिए बात करें?
नए रिश्तों से वक्त मिलेगा
तो बुआ के घर जायेंगे
नहीं तो
आप अपने तक
इन रिश्तों को सीमित रखिये.
आप ही निपटिये इन अपने रिश्तों से.

मैं इन सूखे पेड़ों  जैसे रिश्तों में 
पानी डाल कर 
फिर से हरा करने के  पक्ष में  नहीं .
मगर कहाँ से?
सब कुछ लगा चुके
तुम्हें यहाँ तक लाने में,
बनाकर सौप दिया
नए रिश्तेदारों  को
अपने लिए कुछ भी नहीं रखा.
खून अपना था,
अब वह भी नहीं रहा.
अब बस  नए रिश्तों में  गहराई है.
उनमें डूब कर ही ज्ञानचक्षु खुलते हैं.

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

सपनों में घरौंदा !

हर रात को नींद में डूबकर 
सपनों में घरौंदा बनाया हमने

आती रही आंधियां  रोज रोज 
उथल पुथल  ही तो  कर गयीं

बिखरे ख़्वाबों को फिर भी
बड़े जतन  से सजाया हमने,

देखते हैं कि कौन जीतता है?
वो तोड़ने वाला खुदा या हिम्मत हमारी.

कल जब फूलों से सजी शाखें
हमारे महल में महकेंगी सुबह सुबह

मुस्कराएगा खुदा और कहेगा हमसे
तुम जीते हो क्योंकि ऐसा  तुम्हें बनाया हमने.

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

मेरी 100वी कविता !

 पाँव रखे जिस धरती पर
परिचय मांग रही थी
लिखित कागजों में
जाति  , धर्म, कर्म औ' देश का
प्रमाण देना जरूरी था.
फिर दिया भी
किन्तु उस हद से बाहर
उस जमीं पर खड़े
कुछ लोग
जो हमारे अंश थे,
जिनकी जड़ें जुड़ी थी
अब भी अपनी धरती से
अपनी बोली, भाषा से
बाहें फैला कर मिले
लगे गले से 
फिर लगे रहे
शायद खुशबू अपनी माटी की
उन्हें लुभा रही थी.
भाषा से हम जुड़े सभी थे 
ख़ुशी में निकले जो शेर जुबां से
कहकहे लगाये,
वाह वाह करने लगे.
छू लिया गर अंतर किसी का
पलकें भींगी थी  साथ साथ 
कहाँ टूटे रिश्ते वतन से
वे भाषा भूले नहीं थे.
वहाँ मंदिरों में रामायण के दोहे
रोज पढ़े जाते है.
गीता के श्लोकों में
सार जीवन का सभी पाते हैं.
कुरान की आयतें भी 
पढ़ रहे सभी थे.
हम वतन, हम जबां अब भी हैं
वक्त ने पहुंचा दिया हो
हमें कहीं भी
कलमें हमारी रोज लिखती 
अपनी ही भाषा में,
हिंदी में बस हिंदी में,
ये कविता, गज़लें और गीतों से
महफ़िल सजाती रहती हैं
हम भारत के वासी हैं तो
हिंदी कैसे भूलेंगे.
हम जिन्दा हैं तो
हिंदी भी जिन्दा रहेगी.
एक दिन विश्व भाषा बन
चमकेगी और रचेगी एक इतिहास,
मेरी इस भविष्य वाणी का 
करना मत उपहास.
ये पहचान हमारी थी , आज है 
औ' कल भी रहेगी.
ये निकली यहाँ से
ये दुनियाँ सभी कहेगी.

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

इम्तिहान मेरे सब्र का !

इम्तिहान मेरे सब्र का कुछ
इस तरह तो मत लीजिये.

फूल तो मांगे नहीं मैंने,
काँटों की सजा तो मत दीजिये.

हर गम कुबूल मैंने कर लिया,
अश्कों पर तो मुझे हक दीजिये.

किस तरह झेलूँ तेरी  ये बेरुखी,
आँखें बंद करने का वक्त तो दीजिये.

छुपा  लूंगी सारे जख्मों को सीने में,
लम्हे लम्हे का हिसाब तो मत लीजिये.

कौन सा लम्हा किसकी अमानत हो?
इसको तो खुद तय मत कीजिये.

इम्तिहान मेरे सब्र का कुछ 
इस तरह तो मत लीजिये.

शनिवार, 25 सितंबर 2010

अफसोस !

बहुत अपना समझ कर उन्हें ,
मैंने दिल  खोल कर अपना धर  दिया.

जो आये थे कभी हमदर्द बनाकर,
बाहर जाकर उन्होंने ही बदनाम कर दिया.

किसको समझें इस जहाँ में अपना  हम
लिखा तो नहीं रहता है चेहरे पे किसी के.

जिसके लिए बगावत की ज़माने से,
उसी ने हमें आज बागी करार कर दिया.

अपनों के  चेहरे की   परत दर परत,
खुलने लगी  कुछ इस तरह से मेरे सामने.

छुपाने की  कोशिश कर ली  बहुत मगर
खुदा ने ही उसे कुछ इस तरह बेनकाब  कर दिया. 

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ब्लॉग्गिंग के दो बरस ...........

                   
  आज मेरे ब्लॉग बनाये हुए दो बरस बीत गए. सफर बहुत ही अच्छा रहा. ये मेरा ब्लॉग ही पहला ब्लॉग थाजिसका नामकारण मैंने अपने मशीन अनुवाद के एक अंश हिंदी जेनरेटर जो की हिंदी वाक्य का निर्माण करता है, के नाम पर किया क्योंकि इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी. फिर मेरा ये ब्लॉग खो गया और मैंने बंद कर दिया . एक दिन फिर मिला और मैंने इसको कसकर पकड़ लिया. तबसे खोने नहीं दिया और इसके और भी भाई बन्धु साथ हो लिए अपनी अपनी जरूरत के अनुसार सब चल रहे हैं. फिर सफर में मिले बहुत से मित्र, शुभचिंतक, छोटे और बड़े यानि कि बुजुर्गवार भी. अब बुजुर्गवार कौन हैं? ये जो होंगे वे समझ गए होंगे. अरे वही जो मुझसे बहुत पहले से यहाँ ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं. इन सभी से मुझे दिशा निर्देश, सलाह और अपनी कमियों का भान कराया और मैंने उसे स्वीकार कर अपने को सुधारने कि पूरी कोशिश की है. 
           इस सफर में मैंने क्या पाया? इसमें सबसे पहले मैंने अपनी डायरी में लिखी कविताओं को भी सार्वजिक कर पब्लिश  कर दिया. उन तमाम ग़मों, तनावों और खुशियों को जिन्हें अब तक सिर्फ और सिर्फ मैंने जिया था - सबके साथ साझा किया. मैंने खुशियाँ , गम और हर भोगा हुआ यथार्थ साझा किया. मैं हर उस गीली  आँख की शुक्रगुजार हूँ, जिसने मेरे आंसुओं को अपनी आँख से बांटा  है. मेरे दुःख से दुखी होकर मेरे कंधे पर हाथ रख कर अपनत्व दिया है. बिना देखे, बिना मिले कई प्यारे रिश्ते बने. कई बार सुना हम रिश्तों के मुहताज क्यों हैं? क्या सामाजिक  सुरक्षा की दृष्टि से - नहीं जिसने बहन कहा तो भाई स्वीकार है, मित्र कहा तो मित्र - छोटे प्रिय बने तो बड़े बुजुर्गवार. इन्हीं में हम घूमते रहते हैं और ये वर्चुअल रिश्ते भी किन्हीं क्षणों में बहुत संबल देते हैं. 
               नौकरी और घर के बीच में बहुत तो नहीं पढ़ पाती हूँ, फिर भी कोशिश करती हूँ. गाहे बगाहे ब्लोगिंग में लोगों को गालियाँ देते सुना, शब्दों के तलवार से अपनी ही माँ, बहनों की श्रेणी में आने वाली आधी दुनियाँ की अस्मिता को तार तार करते देखा और उस कृत्य के लिए लोगों को ताली बजाते और कहकहे लगाते भी देखा. बहुत कष्ट हुआ क्योंकि मैं तो प्रबुद्ध वर्ग  से ऐसे अपशब्दों की उम्मीद कर ही नहीं सकती थी किन्तु फिर लगा कि इन गालियों और अपशब्दों पर भी तो सबका बराबर का हक है.

  •              इसका दूसरा पक्ष भी पढ़ा - मन कि अनुभूतियों को शब्दों के कलेवर को सजाकर फूलों से सजी पृष्ठभूमि में सबको नजर करते हुए देखा. मानवता की होती हुई दुर्दशा के विरोध में सबको लिखते देखा और उनके बहुमूल्य विचारों को पढ़ा, लगा कि हम जितने जागरूक हैं अगर समाज उसको जरा सा भी स्वीकार कर ले तो शायद कुछ दूसरा ही नजारा देखने को मिले. सभी ब्लोगर  बंधुओं को एक मंच पर लाकर ब्लोगोत्सव जैसे समारोह भी देखे और ब्लॉग्गिंग के लिए समर्पित सम्मान के हकदार लोगों को सम्मानित होते देखा तो लगा लेखन की रचनाधर्मिता और समर्पण का सच्चा इनाम पैसों से नहीं बल्कि उन प्रमाणपत्रों में होती है जो  ब्लॉग के साथ सजे नजर आते हैं. 

             कुल मिलाकर सब कुछ पाया ही है, खोया कुछ भी नहीं. एकाकी क्षणों में अकेला कभी नहीं पाया बल्कि और सक्रियता बढ़ गयी. पहले ऑफिस में, मैं बस अपना ऑरकुट अकाउंट खोल कर देख लेती थी और मेरे सहकर्मी कहते बस ऑरकुट ही. और अब वह बंद बस ब्लॉग ही. वो तो है, बीच बीच में खोल कर पढ़ लेती हूँ, देख लेती हूँ और सबसे मिल लेती हूँ. मन को भीड़ नहीं चंद अपनों की जरूरत होती है. 
              इस पृष्ठभूमि में मैं जन्मी और सिर उठा कर देखा
              कहाँ मैं जमीन पर पड़ी और कहाँ वे खड़े देवदार से
              उनने  हाथ बढ़ा दिया और फिर सहारा लेकर सबका                   उनके पीछे पीछे ही तो चल रही हूँ अपनी  चाल  से.

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

मानवता शेष रहेगी!

हाँ ,  मैं मानव हूँ,
जुड़ा रहा जीवन भर  
मानवीय मूल्यों से।
कभी बंधा नहीं,
अपने और परायों की सीमा में
जो हाथ बढ़े 
बढ़ कर थाम लिया,
शक्ति रही तो
कष्ट से उबार लिया।
बहुत मिले 
वक्त के मारे हुए,
अपनों से टूटे हुए,
जो दे सका
मन से, धन से या संवेदनाओं से प्रश्रय 
उबार कर लाया भी 
लेकिन पार लगते ही 
सब किनारे हो लिए.
फिर चल पड़े कदम 
और गिरे , टूटे हुओं की तरफ 
पर तब तक 
ढोते ढोते
अपने कदम लड़खड़ाने लगे 
बहुतों का बोझ ढोते
कंधे झुक गए थे,
हौंसले भी हो रहे थे पस्त 
एक दिन जरूरत थी 
तो कोई नहीं था.
अपने आँख घुमा कर 
दूसरी ओर चल दिए,
परायों की तो कहना क्या?
आँखें भर आयीं 
मानवता की कीमत 
क्या इस तरह से चुकाई जाती है?
तभी 
हाथ कंधें पर धरा 
सिर उठा कर देखा 
मेरी बेटी खड़ी थी
पापा मैं हूँ न,
चिंता किस बात की?
आपकी ही बेटी हूँ
आपकी अलख 
आगे भी जलती रहेगी.
फिर कोई और आयेगा
इस मशाल को थामने 
ये जब तक धरती है
ऐसे ही चलती रहेगी
कभी मानवता न मिटेगी।


सोमवार, 13 सितंबर 2010

हिंदी दिवस पर !

हिंद की शोभा है वो
माथे की बिंदी बनी,
कलेवर है इस देश का 
इस तरह हिंदी बनी.

अभिव्यक्ति का सहज माध्यम
सारे देश ने बनाया इसे अब,
हिंदी दिवस के नाम पर
शीश पर बिठाया इसे अब..

सहज, सुन्दर , ग्राह्य  है
ग्रहण किया जन मानस ने
अंतर से स्वीकार किया अब
जोड़ा है इसको हर अंतस ने.

परचम फहराया है अब तो 
नहीं है सिर्फ अब ये देश में,
इससे जुड़े हैं अपनी जमीं से
खुशबू बिखेर रहे हैं विश्व में

टूटी फूटी ही सही मेहमान भी
डूब जाते हैं इसकी मिठास में,
गहरे तक उतरे शब्दों को
दुहराते रहते हैं वे प्रवास में.