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रविवार, 21 जून 2020

जिंदगी रेत सी !

आज
जब मची हाहाकार
और लगता है ,
कि
हर एक जिंदगी
रह गई है
मुट्ठी भर रेत की तरह ।
बंद मुट्ठी में
कितने कण शेष हैं
अब नहीं पता है।
न उम्र , न काल, न साँसें
सब चुक रहीं हैं ,
बेवजह, बेवक़्त, बेतहाशा
हर दुआ, हर दवा मुँह छिपा रही है ।
हर कोई अकेला आया है
और अकेला ही जायेगा ।
आज सच हो गया है -
घर से ले गये अकेले औ'
वहाँ से लिपटे कफ़न में अकेले ही चले गये ।
आखिरी यात्रा में चार कदम भारी थे ।
कोई चल ही न पाया ।
और जाने वाले चले गये ।
पार्थिव के ढेर होंगे और श्मशान छोटे पड़ जायेंगे ,
ऐसा तो नहीं पढ़ा था किसी किताब में।
नयी इबारत लिखी जा रही है ,
कल के लिए इतिहास में
एक नया काल लिख जायेगा
जिसे कोरोना काल कहा जायेगा ।

मंगलवार, 9 जून 2020

गुमनाम !

वो संगतराश
जिसे लोग पत्थर दे जाते थे
कुछ अपने होते थे
और कुछ पराये भी होते।
वह उन्हें तराश कर
ढाल देता एक आकार में,
रास्ते के वे पत्थर मुखर हो उठते ।
आते वे और ले जाते,
किसी ने सजा लिया घर में
और किसी ने भेंट कर दिया ।
किसी ने बैठाकर मंदिर में,
उन्हें टकसाल बना लिया ।
वो जिंदगी भर
उन बेतरतीब पत्थरों को
रूप देता रहा,
आकार देता रहा,
सिर्फ हुनर के लिए,
लेकिन उसका खरीददार कोई न था ।
पत्थर मेरा
तो हकदार भी हम
तुम्हें गढने का शौक था
फिर उस आकृति से क्या ?
कभी सवाल किया -
तो दुत्कार दिया
तुम्हारा हुनर मेरे ही पत्थरों पर निखरा
वर्ना कौन जानता था ?
ये आकृतियाँ भी नहीं
गुमनाम रहो , गुमनाम जिओ ।
ये वो कृतियाँ नहीं ,
जिन पर नाम लिखे जाते है,
जिन्हें गैलरियों में नाम दिए जाते है।
वो हुनर सीख लो
तब आ जाना ,
दाम तब लगायेंगे।
खरीददार तब ही आयेंगे ।

सोमवार, 1 जून 2020

खामोशी !

बेटियों के उदास चेहरे
अच्छे नहीं लगते
माँ के कलेजे में हूक उठती है।
फिर भी
वो खामोशी से सह जाती हैं
पूछने पर
"कुछ नहीं माँ बेकार परेशान रहती हो।
बस थोड़ी सी थकान है।"
वो माँ जो पढ़ लेती है
चेहरे के भाव को
इन दलीलों से संतुष्ट नहीं होती।
वो हँसती , खिलखिलाती ,
कोयल सी आवाज में गाती
तो
ठिठक जाते थे पैर
अब तो गुनगुनाना भी भूल गई ।
जब रखती पाँव मंच पर
रौनक बिखर जाती थी और
एक एक शब्द चुन कर  बनाती थी वो प्रवाह
घोलती रस कानों में
मोह लेती थी मन ।
आज खुद को बंद कर एक कमरे में
माँ से भी मुखर नहीं होती ।
गर मुखर होती तो
वो उदास नजरें अपना मुँह न चुराती ।
न वो खामोशी एक माँ को रुलाती ।