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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

वो कहाँ खो गया?

बचपन में
जो था 
अब वो कहाँ?
न  जाने
वो कहाँ खो गया?
ये सवाल उठा मन में
और फिर 
वो याद आया -
घनी अमराइयों में
पेड़ों के झुरमुट
कटती थी दुपहर
न लगती थी धूप.
जेठ की दुपहरिया
निबडिया के नीचे
ठंडी हवा थी
न चुभती थी धूप.
पानी  भरी नहर थी
कुँओं  की जगत पर
कलशों और मटकों की
लगती थी भीड़,
पानी भरे हौजों में
किल्लोल करते पक्षी,
पशुओं की नहाती थी फौज
खाली होते बाड़े,
खाली थे नीड़,
अब 
सूखे जगत हैं,
सूखी हैं नहरें,
वृक्षों के बचे हैं
बस सूखे से ठूंठ
मुसाफिर  भी
थके पगों से 
चले जा रहे हैं
क्योंकि
अब कट गयी शाखें 
मुंडित है पेड़
पतझड़ से दिखते 
वे वृक्षों के ठूंठ ,
कहाँ सांस लें
कहाँ सुस्ताने की सोचें
दरख्तों के नीचे
अब आती है धूप.

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कल और आज !



छत कि मुंडेर पर बैठी
नीचे लगे वृक्षों को 
देखकर ठंडक का
अहसास ले रही थी.
फिर नजर पड़ी 
शाखों के बीच 
घोंसले में बैठे
पक्षियों के नवजात शिशु 
बंद आँखों से 
माँ की बाट जोह रहे थे.
कब आएगी औ'
कब डालेगी दाना मुंह में
फिर अपने पंखों तले
छिपा कर सुला देगी.
एक कोमल अहसास से
मन पुलकित हो उठा,
ऐसे ही हम भी थे.
नहला  धुला कर 
माँ साथ लिटा कर सुला लेती थी.
एक कार के हॉर्न ने 
धरा पर ला दिया.
और फिर ये मन
आज पर आ गया,
सड़क  पर दौड़ती 
तेज रफ्तार जिन्दगी का वेग 
क्या अंकुश लग पायेगा?
मानव रिश्तों में क्यों नहीं?
पक्षियों सा जीवन है.
बच्चे को सोता छोड़ कर
जाते हैं पापा,
लौटने पर फिर सो जाते हैं.
बच्चों के मन में
पिता की छवि-
सिर्फ सन्डे को आते है 
बनकर  टांग चुकी है.
माँ की छवि से गहरी 
आया की छवि होती है.
क्योंकि हम जिन्दगी में
कैरियर का सुख,
औ' भौतिक सुखों के बीच
रिश्तों के सुख का
सौदा कर बैठे हैं.
ऐसा नहीं कि 
अहसास मर चुके हैं
पर अब उन 
अहसासों का स्पंदन 
जो खुद हमने जिए थे
खत्म हो चुका है.
हाँ , हमें ये सुख न था-
छुट्टी में कुल्फी,
शाम को होटल में डिनर,
पार्कों में घूमना .
पर माँ थी, पापा थे,
हम अकेले नहीं
भाई बहनों का साथ था.
बस अंग्रेजी बोलती माँ न थी,
कार चलती माँ न थी.
सबकी अपनी कीमत है
औ' 
ये तो अपनी अपनी किस्मत है.
जो हमने पाया 
वो उनको नसीब  नहीं
और जो उनके पास है
वो हमारे लिए सपना था. 
पर तब सब कितना अपना था?
अब तो बस सपना ही सपना है.
अब कौन किसी का अपना है.
अब कौन किसी का अपना है.

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

संवेगों को लगाम दो!

क्यों भटक रही है?
ये नयी पीढ़ी,
न जमीं का अहसास 
न आसमां का अंदाज 
पैरों के तले 
जमीं का अंदाज जो देखा 
खिसकी नहीं है,
बस खिसकने के अंदेशे में 
खुद को कत्ल कर लिया.
अभी कितना जीना था?
किसके लिए जीना था?
कुछ भी नहीं सोचा,
कितने बेसहारे छूटे ,
कितने पूरी तरह टूटे,
कुछ सोच नहीं पाते,
बस रास्ता भटक जाते हैं.
वह भी ऐसी रास्ता 
जिससे वापस कभी नहीं आना है.
शेष रहा 
बस अपनों को याद आना
तस्वीरें देखकर ,
मालाएं चढ़ाकर,
बस दीप जलाना है.
कुछ तो सोचो
इनकी इस गति को
किसी तरह थम लेना है.
उनके संवेगों को
पढ़ना ही होगा,
ये युवा लगातार 
इस रास्ते पर जा रहे हैं,
भटक गए हैं
अँधेरे रास्तों के भय से,
आँखें मूँद लेते हैं.
फिर क्या हल मिला?
नहीं -
अब बागडोर हाथ में लेनी है
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

आतंकवाद कहाँ नहीं है?

हर किसी अप्रिय 
घटना के घटित होने पर,
हम कोसते हैं
आतंकियों को.
गालियाँ हम क्यों देते हैं?
जिनको हमने देखा ही  नहीं.
आतंकवाद के नाम पर
चंद लोगों को
देखते रहते हैं,
अरे ये आतंकी 
कब नहीं थे?
कहाँ नहीं थे?
हर काल में रहे हैं.
हर  बार किसी नए नाम से-
कभी नक्सल, 
कभी माओ
कभी खालसा
कभी मस्जिद और
कभी मंदिर की आड़ में
चंद सिरफिरे
चारा पानी डाला करते हैं.
मन के किसी अंतर में 
कुलबुलाते हुए
नफरत के कीड़ों को.
जरूरत आदमी को नहीं
उन नफरत के कीड़ों को
नेस्तनाबूद करने की है.
जिनसे नस्लें की नस्लें
तबाह हो रही हैं .
मर वे रहे हैं
जो बेकुसूर हैं.
राजनीति के तवे पर 
रोटियां सकने वाले
कब मरे हैं?
वे ही तो इन कीड़ों को
पालते रहते हैं,
जिससे कि 
उनको कोई तो मुद्दा मिले.
सत्ता के गलियारे में बैठ कर बोलने के लिए.
अगर पूछें कि
तुमने क्या किया है?
जब तुम इस कुर्सी पर काबिज थे.
नीचे उतरते ही
फिर आतंकवाद  मुद्दा बन जाता है.
अरे  न देश और न नागरिक
ये तो सुरक्षा के घेरे में
महफूज़ है.
मरते तो वे हैं
जो जान हथेलियों पर रखे
अपने लिए सपने बुना करते हैं.
और फिर 
उनको अधूरा लिए 
सब कुछ छोड़ कर
विदा हो जाते हैं.


बुधवार, 7 अप्रैल 2010

तिरंगे में लिपटे शवों को सलाम!

तिरंगे में लिपटे 
इन वीरों को सलाम. 
क्या इस नमन तक ही 
हमारे कर्तव्यों की है
इति श्री.
फिर पढेंगे कोई
दूसरी खबर 
पर उस खबर के पीछे
क्या बचा सकते है खुद को?
उन चीत्कारों से 
निर्बाध बहते आंसुओं के प्रवाह से
कैसे रहेगी ये सूनी गोद ?
कैसे जियेगी ये सूनी मांग?
कौन संवारेगा 
इन मासूमों के सिसकते औ'
दरकते भविष्य को?
अफसोस तो इस बात का है
इसी जमीन की उपज
इसी के पंचतत्वों से बने
कैसे 
अपनी ही माँ की कोख में
बारूद भरते गए.
रोई बहुत होगी 
अपने ही लालों के काम पर.
वे मरे तो हुए अमर
तुम तो अब 
सबकी नज़रों में
जीते हुए भी मर गए.
शक्ति , सत्ता या धन की
हवस हो 
इनमें लिपट कर एक दिन तुम भी चले ही जाओगे.
मौत को खेल 
बनाने वाले
खिलौना बना 
मौत तुम्हें
एक दिन ले जायेगी. 
फिर पता नहीं 
कितने टुकड़ों में
बिखरे तुम
और उनको 
बीन बीन कर
कोई निर्दोष माँ, पत्नी और  बच्चे 
इसी तरह से चीत्कार करेंगे.
औ' मानवता तब 
थूक तुम्हीं पर जायेगी.
वे गए तो वतन की राह में
कुर्बान हो
उन्हें मिला 
शत शत नमन
पर तुम्हें तो
किसी दिन 
गुमनामी के अँधेरे में
कभी और कहीं भी
ये मौत तुम्हें ले जायेगी.
कफन मिलेगा या नहीं
कहीं पशुओं का 
आहार बन
जंगल के किसी कोने 
बस लाश पड़ी रह जायेगी.
बस लाश पड़ी रह जायेगी.