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शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

रिश्तों की बगिया !

हाँ 
मैं रिश्ते बोती हूँ , 
धरती पर उन्हें 
रोपकर 
निश्छल प्यार ,
निस्वार्थ भाव,
और अपनेपन की 
खाद - पानी देकर 
उनको पालती हूँ। 
धूप , पानी और शीत से 
कभी बहा कर पसीना 
कभी देकर सहारा 
कभी पौंछ कर आंसू उन्हीं के 
लगाकर काँधे 
समेत कर सिसकियाँ 
बेटी , बहन और बहू के रिश्ते 
जीवन में संजोती हूँ । 
बेटे , भाई और दोस्त के 
रिश्ते भी उतनी ही शिद्दत से 
बोये और संजोये हैं। 
कहते हैं लोग 
तुम्हरे रिश्ते तो 
दुनियां में पनप रहे हैं। 
कैसे याद रखती हो ?
नहीं ऐसा नहीं है ,
कभी आंधी , तूफान और बाढ़ में 
उड़कर , बहकर और दबकर 
रिश्ते भी कुचल जाते हैं। 
लेकिन वे मरते नहीं 
वक्त उन्हें फिर जीवन देता है। 
जड़ें उनकी इतनी गहरी हैं 
कि छंटते ही बादल 
या फिर दबे हुए 
ढेरों मलबे के नीचे 
सांस फिर भी ले रहे होते हैं। 
वर्षों और दशकों बाद 
जब फिर सर उठाते हैं ,
तो मैंने बोया था 
सुनकर भूले नहीं होते है ,
फिर से लिपट जाते हैं। 
आँखों से गिरते हुए आंसुओं में 
वो अंतराल की दीवार 
ढह जाती है। 
मैं तो वहीँ खड़ी हूँ ,
वटवृक्ष सी 
मेरी लताएँ , पौधे 
औ'
वृक्ष बन 
एक बगीचा बन चुका है। 
उसमें बसी 
फूलों की खुशबू 
महका रही है 
मेरे जीवन की बगिया। 
 हाँ मैं रिश्ते बोती हूँ ,
उनमें जीती हूँ और उनमें रहती हूँ।

बुधवार, 16 सितंबर 2015

मैं हिन्दी हूँ !

अपनी इस कविता को मैंने जानबूझ कर हिंदी दिवस पर नहीं डाला क्योंकि हिंदी हमारे लिए सिर्फ एक दिन अलख जगा कर चिल्लाने की चीज नहीं है।  उसके लिए प्रयागत्नशील हमारे साथियों के प्रयासों में एक निवेदन ये भी समझा जाय।

क्या हम गुनहगार नहीं ?
मुख से 
जो फूटा था 
शब्द प्रथम - वो 'माँ' ही था ,
मदर , मॉम या  मम्मी नहीं। 
अर्थ बहुत हों 
भाव एक हो 
फिर भी क्यों?
अपनी माँ मांगे 
घर में हक़ अपना 
औ'
अपने ही बेटे 
आवाज उसकी सुन न पाएं। 
कानों में ॐ 
जिव्हा पर ॐ 
किस भाषा में लिखा गया था ?
आज वही 
हम बोलने से कतराते हैं ,
बच्चे बोलें तो शर्मिंदगी लगती है। 
अपनी संस्कृति से 
अब परायी प्रिय लगती है। 
शर्म उन्हें नहीं आती है ,
जो जन्मे इस धरती पर 
पैरोकार बने विदेशी भाषा के 
शान से बोलते हैं। 
उनके अपने सुनने वाले 
सिर धुनते हैं। 
नाज तो उन पर है ,
जो विदेशी जमीन पर 
हिंदी का परचम लहर रहे हैं। 
सिखा रहे हैं 
और विश्व में एक महत्वपूर्ण भाषा 
बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 
किस तरह अपने प्रयासों से ,
हम जिसे देश में 
स्वीकार नहीं कर पाये 
राजभाषा तक। 
हिंदी भी अपने हक़ के लिए 
साल में एकबार 
अखबारों ,
जलसों , प्रतियोगिताओं में 
जोर शोर से 
अपनी ही धरती पर 
अपने बारे में 
अपनी महिमा सुनती है। 
फिर पूरे साल 
दफ्तरों में , अदालतों में 
सिसकती रहती है।