हाँ
मैं रिश्ते बोती हूँ ,
धरती पर उन्हें
धरती पर उन्हें
रोपकर
निश्छल प्यार ,
निस्वार्थ भाव,
और अपनेपन की
खाद - पानी देकर
उनको पालती हूँ।
धूप , पानी और शीत से
कभी बहा कर पसीना
कभी देकर सहारा
कभी पौंछ कर आंसू उन्हीं के
लगाकर काँधे
समेत कर सिसकियाँ
बेटी , बहन और बहू के रिश्ते
जीवन में संजोती हूँ ।
बेटे , भाई और दोस्त के
रिश्ते भी उतनी ही शिद्दत से
बोये और संजोये हैं।
कहते हैं लोग
तुम्हरे रिश्ते तो
दुनियां में पनप रहे हैं।
कैसे याद रखती हो ?
नहीं ऐसा नहीं है ,
कभी आंधी , तूफान और बाढ़ में
उड़कर , बहकर और दबकर
रिश्ते भी कुचल जाते हैं।
लेकिन वे मरते नहीं
वक्त उन्हें फिर जीवन देता है।
जड़ें उनकी इतनी गहरी हैं
कि छंटते ही बादल
या फिर दबे हुए
ढेरों मलबे के नीचे
सांस फिर भी ले रहे होते हैं।
वर्षों और दशकों बाद
जब फिर सर उठाते हैं ,
तो मैंने बोया था
सुनकर भूले नहीं होते है ,
फिर से लिपट जाते हैं।
आँखों से गिरते हुए आंसुओं में
वो अंतराल की दीवार
ढह जाती है।
मैं तो वहीँ खड़ी हूँ ,
वटवृक्ष सी
मेरी लताएँ , पौधे
औ'
वृक्ष बन
एक बगीचा बन चुका है।
उसमें बसी
फूलों की खुशबू
महका रही है
मेरे जीवन की बगिया।
हाँ मैं रिश्ते बोती हूँ ,
उनमें जीती हूँ और उनमें रहती हूँ।