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बुधवार, 23 जून 2010

कितना विरोधाभास !

बादलों की गर्जन
बारिश की टप टप
जंगल में नाचते मोर
गलियाँ भरी
पानी में भीगते 
बच्चे मचाते शोर,
किसानों  के चेहरे पर
खिल रही हैं मुस्कान, 
प्यासी धरती की
अब बुझेगी प्यास
हल चल सकेंगे
रोपेंगे धान. 
पर वही 
कहीं झोपड़ी में
सुमर रहे 
भगवान  को
कहीं ये पानी और बादल 
कहर बन न जाय  .
टप टप टपकती खपरैल 
उस पर पड़े पालीथीन के टुकड़े 
और शोर कर रहे थे.
उतनी तेजी से 
कई जोड़ी हाथ 
प्रार्थना कर रहे थे.
इस  बारिश को अब 
बंद कर भगवान
कहीं सिर का सहारा 
न छीन जाए.
कितना  विरोधाभास 
किसी का जल जीवन 
औ'
कहीं नरक न कर दे जीवन.
कहाँ जायेंगे?
बरसते सावन में
कहाँ सिर छुपायेंगे  .

गुरुवार, 17 जून 2010

जीवन वृक्ष !

नव पल्लव सा
अद्भुत बचपन
और चले
दो चार कदम तो
डाल पकी औ'
बन गया पौधा,
अपने पैरों खड़ा हुआ
फिर   तो
जीवन के चरणों सा
नित नव विकसित
किशोर, युवा सा
वृक्ष  वही सम्पूर्ण हुआ.
शाखों पे शाखें
पल्लव की उस घनी छाँव में 
अपने ही पौधों को पाला
आया माली काट ले गया
अपने से अलग कर गया 
औ' फिर 
दूर दिया था रोप उन्हें
दूर सही
थे तो वे अपने ही सामने.
देखा  उनको बढ़ते
लदते पल्लव औ' पुष्पों से
फलों से लदकर
झुक गए कंधे
हवा चली
फिर आई ऐसी आंधी
सारे पत्ते  दूर हो गए
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल कर.

पल्लव  ही थे पहचान हमारी
नाम हमारा शेष कहाँ
किस पल आये अंधड़ मौत का
औ' हम यहीं कब बिछ जाएँ.

शुक्रवार, 11 जून 2010

एक अंतहीन इन्तजार...........!

इन्तजार
किसी अच्छे पल का
कितना मुश्किल होता है?
लगता है
ठहर गयी काल की गति
सुइंयाँ रुक गयीं
सूरज और चाँद भी
रुक गए हैं
किसी इन्तजार में.
बयार गगन में सहमी सी
किसी संकेत के इन्तजार में
अधर में लटकी सी
त्रिशंकु बनी है.
और हम
सांस थामे
देख रहे हैं
ऐसे काल परिवर्तन की राह
जिस काल में
रामराज्य हो न हो
महाभारत सा 
अपमान, षडयंत्र औ'
विनाश न हो ,
जहाँ गीता के उपदेश
सिर्फ पांडवों को
समझ आते हैं,
कौरवों की सेना तो
सिंहासन की  चकाचौध में
जय हो, जय हो,
के साथ अनुगामी बनी है.
वह परिवर्तन
सोचते हैं
पतझड़ हो कुविचारों की
विचारों में क्रांति हो.


और नव पल्लव की तरह
सुरचिता अपने नव रूप में
बसंत सी खिल उठे.

सोमवार, 7 जून 2010

कैसी ये ख़ामोशी ?



आजकल खामोश क्यों?
कलम तेरी,
क्या जज्बा संघर्ष का
कुछ डिगने लगा है?
या फिर
अपनी लड़ाई में
बढ़ते कदमों के नीचे
बिछाए गए 
कुछ काँटों की चुभन
डराने लगी है.
कुछ इस तरह 
रखो कदम
चरमरा के पिस जाएँ,
कांटे क्या लोहे की सलाखें भी
जज्बों के आगे
मुड़कर बिछ जायेंगी.
कटाक्ष, लांछन,
हमेशा श्रंगार बने 
जब अपनी तय
सीमायों से परे
किसी नारी ने
कुछ कर दिखाया है
उंगलियाँ उठती रहीं  हैं
आखिर कब तक
उठेंगी
अपनी मंजिल की तरफ
चुपचाप चला चल
जब मिलेगी 
विजय की ध्वजा
ये उंगलियाँ
झुककर
तालियाँ बजायेंगी
कामयाबी के सफर में
सब साथ होते हैं.
संघर्ष की राह 
कठिन तो है लेकिन अजेय नहीं.
मेधा, क्षमता , शक्ति और धैर्य
सब तो तुम में है
विजय पताका भी तुम्हारी ही होगी. 
विजय पताका भी तुम्हारी ही होगी.

बुधवार, 2 जून 2010

लिखा नहीं जाता !

गीत और ग़ज़ल लिखे नहीं जाते
लिख जाते हैं,
कौन सा पल, 
कौन का निमिष ,
मन के दर्पण पर
छोड़ दे एक लीक
और मन
भावों की लड़ियाँ, 
अक्षरों के मोती पिरोकर
शब्दों के हार 
बनाने लगता है.
जब सब ख़त्म हो जाएँ
तब उठाकर देखो
कुछ न कुछ
अंतर्वेदना हो या उल्लास
एक रचना बन जाती है.
विरह हो या श्रृंगार 
सब कुछ
समाकर अपने में
मन को शांत कर जाती है. 
और मन एक कोरा कागज़ सा फिर
खोजने लगता है 
किसी नयी रचना के लिए
कोई नया भोगा हुआ यथार्थ.