गुजरे साल के वो भयावह दिन ,
किस तरह एक तारीख़ बन गए।
समेट कर जो कुछ रखा था यादों में ,
कुछ ज़ख्म कुछ फाहे बन गए।
नहीं जानते कौन कब बेगाने हुए ,
कौन दिल से जुड़े और साये बन गए।
जिया था जीवन साथ जिनके उम्र भर ,
गर्दिश में देखा तो अनजाने बन गए।
जीवन में बिखरे धूप के टुकड़े और बादल कि छाँव के तले खुली और बंद आँखों से बहुत कुछ देखा , अंतर के पटल पर कुछ अंकित हो गया और फिर वही शब्दों में ढल कर कागज़ के पन्नों पर. हर शब्द भोगे हुए यथार्थ कीकहानी का अंश है फिर वह अपना , उनका और सबका ही यथार्थ एक कविता में रच बस गया.
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