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मंगलवार, 5 मई 2020

हाँ मै हूँ बबूल !





हाँ मै हूँ बबूल !

जिसे न कोई रोपे जग मेंं,
खुद ब खुद उगता बढ़ता हूँ
नहीं धूप वर्षा की जरूरत
रहते जिसमें शूल ही शूल,
 ्हाँ मैं शूल हूँ बबूल !

नहीं चाहिए खाद औ पानी
फिर भी करके मैं मनमानी
जहाँ तहाँ उग ही आता हूँ 
चाहे धरती हो प्रतिकूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

रक्षक भी बन सकता हूँ 
खेतों पर मैं बन कर बाड़ 
सीमा पर पहले ही रोकूँ
दुश्मन को बनकर त्रिशूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

आयुर्वेद ने समझा मुझको
ऋषियों ने देकर सम्मान
गोंंद , छाल या फल हों
औषधियों में किया कबूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !




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3 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3694 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

धन्यवाद

दिलबागसिंह विर्क

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर

अजय कुमार झा ने कहा…

वाह दीदी , फूल पर तो बहुत सारी कवितायेँ पढ़ी सुनी देखी काँटों की खूबसूरती सब नहीं देख लिख सकते हैं | बहुत ही अलग और बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ | बबूल का तो कहना ही क्या