सावन लिखा
तो
मायका याद आया,
इस घर से वहाँ जाना,
नीम पर पड़ा झूला,
सारी सहेलियों की टोली,
हफ्तों पहले से सपने
तैरने लगते थे।
कितनी तैयारी होती थी?
छोटी बहनों के लिए
कुछ लेकर तो जाना है,
भाई की पसंद की राखी
पसंद की मिठाई,
भाभी की चूड़ियाँ, कंगन
सब इकट्ठा करके चलते थे।
आज
वहाँ न माँ-पापा रहे
न बहनें - सब अपने घर
अब नहीं मिल पाते वर्षों,
और भाई भी रूठ गये,
फिर कैसा सावन, राखी, चूड़ियाँ, कंगन
सब बेमानी हो गये।
खो गये सब मायने
और मायका भी तो बचा कहाँ?
न माँ, न पापा और न भाई हों जहाँ।
13 टिप्पणियां:
यादें ही राह जाती हैं । अब रिश्तों में वो बात भी नहीं ।
रह **
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२२-०८ -२०२२ ) को 'साँझ ढलती कह रही है'(चर्चा अंक-१५२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
क्या ढूँढ रही हैं रेखा जी,सब-कुछ बदल गया है -न वैसा जीवन ,न वह मन!
जी बात तो वही है, लेकिन हर दिल वैसा नहीं हो पाता है।
फिर भी क्या मोह के धागे हम तोड़ पाते हैं?
बहुत बहुत आभार अनीता जी मेरी रचना को चर्चा अंक 1529 में स्थान देने के लिए।
अब सब बदल गया है ।सुंदर रचना
सही कहा आप ने दी, उस आँगन में पैर रखते ही न जाने क्यों अपार सुख की अनुभूति होती है।
बहुत सुंदर मन को छूते भाव।
सादर
भले ही सबकुछ वैसा न हो जैसा छोड़ आए थे पर उन स्मृतियों से बेशकीमती कुछ भी नहीं शायद।
भावपूर्ण सृजन।
सादर।
सावन लिखा
तो
मायका याद आया,.. पहली जी पंक्ति ने मन को छू लिया. बहुत सुंदर रचना ।बधाई दीदी ।
मायके का सावन जीवन की प्राण वायु बनकर तन-मन को ऊर्जा देता है पर जब मायके की रौनकें बिछड़ जाएँ तो वेदना स्वाभाविक है।मार्मिक अभिव्यक्ति रेखा जी।ये हर नारी की अंतरसिंचित व्यथा है।🙏🙏
माँ पापा तक ही रहता है मायका...उसके बाद तो बस खानापूर्ति है...।
बहुत ही सुन्दर यादें ।
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