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सोमवार, 2 जुलाई 2012

बिखरते रिश्ते !

वो रिश्ते 
जो माँ ने दिए थे,
वो पल 
जो संग संग जिए थे,
 न जाने 
कितने काम मिलकर किये थे .
अब हम बड़े 
और वे हमसे भी बड़े हो लिए  है।
 घर की दीवारें 
जो मिल कर रची थीं,
अब दरकने लगीं हैं 
उन्हें कुछ समेटा 
मैंने इस तरह से 
चेहरे  पे शिकन भी 
आने न दी है।
अब दरारें बढ़ रही हैं,
हाथ छोटे  पड़  गए हैं
 उन्हें छिपाने में.
अब लोगों की निगाहें 
उन पर पड़ने लगी हैं 
सवालों की बौछार सी 
अब मुझ पर होने लगी है।
दंभ मैं ही भरा करता था,
ये घर एक उपवन है,
इसके फूल ऐसे खिलते रहेंगे ,
अब प्रश्नों के व्यूह में 
फंसा रास्ते खोज रहा हूँ।
उनके नहीं बस 
सिर्फ अपने दोषों को छांट  रहा हूँ। 
ऐसा नहीं कि 
सिर्फ मेरा घर दरका है 
लेकिन औरों से 
हमको लेना भी क्या  है?
फिर हम किसको 
सजा दें ?
किस मिटटी गारे से जोड़ें
इन दरकनों को  
दरारों को फिर से 
भरने चले हैं।
वे दीवार ऊँची चाहते हैं,
भूले से भी चेहरे 
कहीं दिख न जाएँ।
निगाहें निहारती हैं चेहरा हमारा 
क्या उत्तर दें ? 
बेटे बटें ये कब चाहा  था उनने 
लेकिन चलन तो 
अब ये ही चला है 
अपना घर संभालो 
ये ही बहुत है 
औरों के घर में न 
अब अपनी आस देखो। 
ये शाखाएं है 
दूर दूर और दूर ही जायेंगी 
उम्मीद इनसे न इतना करो तुम 
शाखें कभी एक होती नहीं है।
शाखें कभी एक होती नहीं है।

12 टिप्‍पणियां:

Anita kumar ने कहा…

बहुत सही कहा, उम्मीद कोई बांधो नहीं इक कर्ज समझो जो रो कर या गा कर, कैसे भी चुकाना है

shikha varshney ने कहा…

गहरी पीड़ा झलक रही है पंक्तियों में

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ये शाखाएं है
दूर दूर और दूर ही जायेंगी
उम्मीद इनसे न इतना करो तुम
शाखें कभी एक होती नहीं है।
शाखें कभी एक होती नहीं है

सटीक बात .... सुंदर प्रस्तुति ....

Udan Tashtari ने कहा…

aapne to jaise meri baat kah di...ek ek pankti se jod paya khud ko...oh!

रचना ने कहा…

waah

दिगम्बर नासवा ने कहा…

उम्मीद नहीं रखे में ही भलाई होती है ... सच कहा है ...

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

समीर जी , अब ये हर दूसरे घर की कहानी बन चुकी है , अब जोड़ने वाले तो रहे ही नहीं है - माँ बाप चाहे तब भी क्या होता है? खुद माँ बाप बनने पर इसकी कीमत पता चलती है कि इन दीवारों की दरकन कितना कष्ट देती है लेकिन ये भी सच है कि शाखें पलती तो जड़ों से ही रहेंगी लेकिन उससे अपनी जुडन को कोई याद नहीं रखता.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

नासवा जी,

उम्मीद कैसे न रखें ? जब पौधों की जड़ों में पानी देते देते जीवन गुजर जाता है और बड़े होकर पेड़ बनने पर वे माली को किराये के आदमी समझ कर तिरस्कार देते हें तो फिर वह टूट जाता है.

वाणी गीत ने कहा…

शाखाएं कभी एक होती नहीं हैं , एक सी होती नहीं है ...
सबकी अपनी दुनिया होती है , अच्छा है उन्हें सम्पूर्ण व्यक्तित्व मिले ...यह सोच लें तो कुछ अखरता नहीं है ...मगर शायद माता पिता की ओर से सोच कर देखूं तो अखरेगा !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

इसमें किसी का भी दोष नहीं क्योंकि दस्तूर ही यही है ! बढ़िया भाव !

vandana gupta ने कहा…

उफ़ कितना मार्मिक चित्रण किया है ।सच कह दिया।

विभूति" ने कहा…

बहुत ही खूबसूरती से जिन्दगी के प्रशनो को शब्दों में ढाला है आपने.....