कई बच्चे अपने भविष्य के लिए सपने सजाये पढ़ रहे थे किसी ने खेती गिरवी रखी तो बच्चे को शहर में रख कर तैयारी करवाई। कई बच्चे दो या उससे अधिक साल से तैयारी कर रहे थे कि अचानक पता चला कि हमारे डाक विभाग की गलती से बच्चों के फार्म गंतव्य तक पहुंचे ही नहीं है। वे बिलख ही तो पड़े हैं। जो पैसे वाले हैं उनके लिए न सही कहीं भी पैसे से दाखिला दिला देंगे लेकिन जो अपने बच्चे की मेधा पर भरोसा करके ही अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उन्हें पढ़ा रहे हैं उनका क्या होगा? उनके एक डॉक्टर बनने का सपना कहीं टूट न जाय लेकिन इसके लिए जिम्मेदार लोग फिर भी जिम्मेदार नहीं मान रहे हैं अपने को ।
कुछ ऐसा ही तो लगता है उन भुक्तभोगियों को - जिनके सपने अभी अधर में लटके हैं और लोग उनको उपदेश दे रहे हैं। उन्हें क्या पता की फसल के गेंहूँ बेच कर कोचिंग की फीस पिता भर देते हैं और बच्चे शहर में अपनी पढ़ाई के साथ ट्यूशन करके बाकी खर्च निकाल रहे हैं उस पर भी उनके भविष्य के साथ ऐसा मजाक होना क्या सही है?
वर्षों से जुटे वे अपने सपनों को सजाने में,
सपने टूटने पर तो कोई आवाज नहीं होती ।
तड़प के रह गए वे मासूम से दिल सुनकर
टूटने पर लगा यही तो कहीं गाज नहीं होती।
कहा ज़माने ने कि उठ कर फिर से चल दीजिये
टुकड़ों से लिपटने से मंजिलों की आगाज नहीं होती।
बिलख ही तो पड़े थे वे मुरझाये से उनके चेहरे,
होता तो सब गर किस्मत हमसे नाराज नहीं होती।
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
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2 टिप्पणियां:
सही कहा आपने।इस दर्द को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है
आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्वागत है
http://tetalaa.blogspot.com/
बिलख ही तो पड़े थे वे मुरझाये से उनके चेहरे,
होता तो सब गर किस्मत हमसे नाराज नहीं होती।
जिस तन लागे वो तन जाने। सहमत हूँ। आभार।
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