उस मकान से
कभी आतीं नहीं
ऐसी आवाजें
जिनमें खुशियों की हो खनखनाहट।
खामोश दर,
खामोश दीवारें,
बंद बंद खिड़कियाँ,
ओस से तर हुई छतें
शायद रोई हैं रात भर ।
कोई इंसान भी नहीं
हँसता यहाँ,
मुस्कानें रख दी हैं गिरवी।
उनके यहाँ
खुशियाँ ने भी
न आने की कसम खाई है।
शायद इसीलिए
हर तरफ मायूसी छाई है।
5 टिप्पणियां:
बहुत ही सुन्दर रचना रेखा जी
आभार अभिलाषा जी मेरे ब्लॉग पर आकर उत्साहवर्धन करने के लिए।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार(२२-०८ -२०२२ ) को 'साँझ ढलती कह रही है'(चर्चा अंक-१५२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदय स्पर्शी रचना।
संवेदनाओं से ओतप्रोत।
सुन्दर रचना
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