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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

कठपुतली से पर्दानशीं तक !

जिंदगी अपनी
जन्म से
जिनके हाथों में ,
जिनकी मर्जी पर
और जिनके लिए
जीते रहे ,
 उस  रूप को
हम आज कठपुतली का
नाम देते हैं।
शास्त्रों ने जिसे
शास्त्रोक्त बताया
उसी तरह जिया हमने।
चाहे वह
,बेटी  बहन , पत्नी या फिर माँ रही हो।
सात पर्दों में रखा ,
 फिर भी साया
और शासन पुरुष का रहा।
वक़्त बदला
धीरे धीरे
खुद को संभाला
कदम से कदम मिलाने की
शक्ति और शिक्षा पायी
खुद को आज़ाद किया।
लेकिन आधी आबादी
खुली हवा में सांस लेती
शेष आधी आबादी का
दम घुटने लगा
फिर कुछ ऐसा करने लगे।
बंदिशे उसको खुद ओढनी पड़ें।
कभी खींचा , कभी घसीटा
कभी तार तार कर दी अस्मत,
 कभी सूरत बिगाड़ दी ,
सोचा चलो फिर से 
पर्दानशीं हो जाएँ। 
वे खुश रहें और हमें भी रहने दें।

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वाकई।
--
विचारणीय प्रस्तुति।

मन के - मनके ने कहा…

विडंबना--नारी जीवन की?