न जाने कहाँ,
खो जाते हैं वो भाव
कभी यूं ही चलते चलते
नींद में जागते से
अलसाये से मन में
जो उमड़ आते है।
मन ही मन
शब्दों में ढल जाते हैं।
लेकिन
गर उन्हें तुरत
शब्दों को लिपिबद्ध न किया
तो
फिर वे उन बादलों की तरह
स्मृति से फिसल जाते हैं,
जो आकाश में उमड़ते हुए
अपना आकार बदल लेते हैं।
फिर विलीन हो जाते हैं
लाख खटखटाओ
स्मृति के द्वार
वे वापस नहीं आते
निराकार से
फिर साकार नहीं हो पाते
और हम
उन्हें चाहे जितने बार
आवाज दिया करें
वे भाव भी न
बहुत भाव खाते हैं
और
हमें धता बता कर
खो जाते हैं।
6 टिप्पणियां:
सार्थक रचना!
भाव, शब्द और मेरी कलम - चलती है आंखमिचौली .... कभी भाव गुम,
कभी शब्द
... कभी मैं
उम्दा अभिव्यक्ति!!
ham bhi bahut bhaw khate hain:))
bahut umda di:)
ये तो आपने सटीक आकलन किया है हम सभी ऐसी परिस्थितियों से गुजरते हैं।
वो तो मुझे पता है कि मुकेश बहुत भाव खाता है , लेकिन उस भाव को नीचे लाना मुझे आता है.
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