बहुत चाह की
लिखना छोड़ दूँ,
और आज से ही
इस कलम को
तोड़ दूँ,
पर
जब भी कोई भोगा हुआ यथार्थ
कर गया अन्तर पर आघात
आंसू की स्याही बन
भावों के हस्ताक्षर
खुदबखुद
कोरे कागज़ पर
दर्ज हो गए.
मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008
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जीवन में बिखरे धूप के टुकड़े और बादल कि छाँव के तले खुली और बंद आँखों से बहुत कुछ देखा , अंतर के पटल पर कुछ अंकित हो गया और फिर वही शब्दों में ढल कर कागज़ के पन्नों पर. हर शब्द भोगे हुए यथार्थ कीकहानी का अंश है फिर वह अपना , उनका और सबका ही यथार्थ एक कविता में रच बस गया.
1 टिप्पणी:
वाह.........बहुत ही सुंदर....संक्षिप्त शब्दों में आपने कितना बड़ा सत्य कह दिया.बहुत बहुत सुंदर.आभार.
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