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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

अभिलाषा

बहुत चाह की
लिखना छोड़ दूँ,
और आज से ही
इस कलम को
तोड़ दूँ,
पर
जब भी कोई भोगा हुआ यथार्थ
कर गया अन्तर पर आघात
आंसू की स्याही बन
भावों के हस्ताक्षर
खुदबखुद
कोरे कागज़ पर
दर्ज हो गए.

1 टिप्पणी:

रंजना ने कहा…

वाह.........बहुत ही सुंदर....संक्षिप्त शब्दों में आपने कितना बड़ा सत्य कह दिया.बहुत बहुत सुंदर.आभार.