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सोमवार, 29 जुलाई 2013

क्या हो रहा है?

चुनाव  अब धीरे धीरे  करीब आ रहे हैं और सब  अपनी छवि  के लिए  राजनैतिक समीकरण जिस तेजी से पूरे देश को उद्वेलित कर रहे हें लगता है कि सारे दलों के लोग अब बिल्कुल दूध के धुले होकर हमारी (जनता) की शरण में आने वाले हें लेकिन दलों की नीतियां भी तो देख लीजे फिर विश्वास कीजिये


ये दल और दलों के सिरमौर
जो कर रहे हें,
उसके लिए हम रोज
सवेरे उठकर अखबार बताने लेगे  हैं

जो उजला भी नहीं है,
गले तक कालिख पी चुके हैं 
कपड़ों की कालिमा से सने है
उसको ही चमकाने में लगे हैं,

उसकी चमक से उजले होंगे जैसे ,
देश के सारे काले कारनामे 
गुणगान करते उन्हीं लोगों के

सारे काले कारनामें छिपाने में लगे हैं

कीचड उछालते हैं दूसरों पर
छीटें कहाँ तक आये
इसे भूल कर वे
खुद को पाक बताने में लगे हें

अँधेरे के साए बसते जहाँ है,
जहाँ जिन्दगी जी रही सड़क पर,
जूठन चाट कर बचपन जी रहा है ,
उन्हें महलों के काबिज बताने में लगे हैं . 

उनके  नाम पर लगे दाग ,
दिखते नहीं है उन्हें कभी

शीशे के ऊपर लगे हैं परदे 
और गहरे चादर से छुपाने में लगे हें

कर रहे है प्रशस्ति उनकी
कल तक जो थे पराये,
इज्जत बचा लें उनकी यही सोच से तो
घर में अपने बुलाने में लगे हैं

इतने साल से समझ कर दीन हीन 
तिरस्कार का तोहफा जिन्हें दे रहे थे,
दिखने लगे जो दबंग सा कलेवर
उन्हीं को फिर से रिझाने में लगे हें

कल इन्हीं ने खींची थी रेखा
देश को वर्गों में बांटने की 
अब रचने लगे ऐसे पैमाने 
गरीबों को अमीर बनाने में लगे हें

खुद बन रहे हें कुबेर पुत्र
निरंकुश , स्वेच्छाचारी , स्वयंभू
डूबे सत्तामद में गले तक 
अंधी कमाई करने में लगे हें

दिन भर जो खोदते हें मिट्टी
और पत्नियाँ ढो  रही हैं सिरों पर,
जो कभी कभी सोते  हैं भूखे
उनकी गरीबी का नाम मिटाने  में लगे हैं

अकूत सम्पदा के ढेर पर हें बैठे,
फिर अभी लिप्सा शेष उनमें 
लूटने चले हैं उनकी कमाई
औरों का चैन चुराने में लगे हें

मरने दो भूखे
बढ़ने दो महंगाई 
मिटा कर कागजों पर गरीबी

अब अपनी सत्ता बचाने में लगे हें


सोमवार, 22 जुलाई 2013

तस्मै श्री गुरुवे नमः !

गुरुवर तुमि नमन औ' वंदन बारम्बार ,
भाव सुमन अर्पित है करिए स्वीकार . 

शिशुपन से जो थामा मुझको ,
पग पग पर ये ही डगर दिखाई . 

काँपे पग डरसे या मन घबराया   
तुरत ही अपनी अंगुली थी  थमाई . 

सत-असत की धूप -छाँव से
बचने की तुमने ही तो जुगत बताई . 

रोशन की आस मुक्ति मार्ग की 
फिर  मन में एक अलख जगाई . 

तम कितना ही गहरा क्यों न हो ?
किरण आस की उसमें दिखलाई . 

साथ छोड़ने  से पहले  मुझको ,
पार होने को एक पतवार थमाई .

 

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

अमल तो करें !

रिश्ते हैं एक पौध
पलते है जो दिलों में 
प्यार का पानी दें,
हवा तो दिल देता है 
फिर देखो कैसे ?
हरे भरे होकर वे
जीवन महका देंगे

अकेले और सिर्फ 
अपने  की खातिर 
अपने सुख की खातिर 
जीना बहुत आसन है ,
सोच बदलो 
औरों के लिए भी 
जीकर देखो तो वे 
बहुत  कुछ  सिखा देंगे . .

पानी किसी भी पौध में दें  
जरूरी नहीं कि 
अपनी ही बगिया का  हो ,
फूल  खिलेंगे और  महकेंगे 
खुशबू बिखरेगी 
बिना भेद के होता कैसे 
गैरों  से प्यार दिखा देंगे .
 
.इतना छोटा नहीं 
इंसान से इंसान का रिश्ता 
चीरों जिगर को  
सबमें बस वही सब होगा 
देख कर जान लेना 
फर्क  है दिल और जिस्म में 
धर्म , जाति , गरीब और अमीर के 
इस सोच को पल में मिटा देंगे .

एक हैं सब धरती पर 
एक से जज्बात हैं ,
अगर सीखने का जज्बा है 
जानने की मर्जी है तो 
इंसान से इंसान को 
जोड़ें हम कैसे 
वे उस प्यार की  
ऐसी इबारत लिखा देंगे . 

 


गुरुवार, 18 जुलाई 2013

शिकायत !

 आँखें बंद करके नज़रें  क्यों  चुराई तुमने?
खोल कर चुराते तो भी न शिकायत होती .

कब क्या  चाहा है तुमसे  मुहब्बत ने मेरी?
बस याद करने की  मुझे इजाजत तो  होती .

बदले में कुछ भी गर चाहते  तो फिर ये 
दुनियां  की नजर में  तिजारत ही होती .

हक मेरे  किसको  दिए ये न शिकवा मुझको ?  
गम भी मेरे न बाँटते इतनी इनायत तो होती .

अहसास मेरे होने का बनाये रखते जो दिल में 
मेरे अहसासों की तेरे दिल में हिफाजत तो होती . 

सोमवार, 8 जुलाई 2013

बहुत दिया जिन्दगी तूने ! (ARUNA)

 जिन्दगी 
मुझे तुझसे
कोई  शिकायत नहीं 
जो भी  दिया 
 बहुत काफी है ,
क्योंकि 
तूने मुझे संतोष दिया है .
 देने को 
औरों के लिए 
वह सम्पदा दी है 
जो कभी ख़त्म  नहीं होगी 
 जिसे जरूरतमंद देखा 
उसे भरपूर दिया 
मुझे तूने प्यार इतना  दिया है ..
दौलत तो नहीं दी 
अथाह ,असीमित  
 लेकिन इतनी तो दी ,
खाली झोली में 
कुछ तो डालो 
भूखे न सोये कोई 
ऐसे विचार तो तूने  ही  दिए हैं . 
महल नहीं
बंगला भी नहीं ,
इस धरती पर 
एक झोपड़ी तो दी है ,
जिसकी छत तले 
 दे सकूं पनाह 
खुले आसमान तले
 जीने  वालों को 
ऐसी सोच भी तूने ही तो दी है .

गुरुवार, 27 जून 2013

कदमों तले धरा !




कभी सोचा है 
शायद नहीं ,
धरा जो जननी है ,
धरा जो पालक है ,
अपनी ही उपज के लिए 
मूक बनी ,
धैर्य धारण किये ,
सब कुछ झेलती रही .
धरा रहती है भले ही 
सबके कदमों के नीचे 
पर ये तो नहीं 
कि वो सबसे कमजोर है .
हमारे कदमों तले ,
ऊँचे पर्वतों तले,
सरिता और वनों तले ,
गर्वित तो ऊपर वाले हैं .
पर्वत गर्व करें अपनी उंचाई का 
मनुज गर्व करे सामर्थ्य का ,
उसके गर्भ से खींच कर तत्व सारे 
खोखला कर दिया ,
लेकिन ये भूल गए 
धरा के बिना खड़े नहीं रह पायेंगे 
खोखले गर्भ से 
कब तक पालेगी तुम्हें?
कांपती है जब वह  क्रोध से 
धराशायी होते वही हैं 
जो धरा को पैरों तले मानते हैं .

पर्वतों की श्रृंखला भी 
पत्थरों में टूट टूट कर 
शरण वही पाते हैं .
औ'
विशाल हृदया धरा भी 
टूटते गर्व से 
बिखरे पर्वतों को शरण में 
अपने लेती रही है .
वेग से आती धाराएं भी 
धरा की गोद में 
शांत हो फैल जाती है,
भूल जाती हैं 
वे वेग अपना ,
माँ  के आँचल में समां जाती है .
वो सबके कदमों तले रहकर भी 
अपने कदमों में झुका  देती है 
और दिखा देती है 
वो जीवन देती है तो 
जीवन लेती भी है . 

गुरुवार, 14 मार्च 2013

रुको सोचो और बढ़ो !

घर की 
इमारत तो बनेगी 
तभी 
जब 
नींव के पत्थर 
संस्कारों के गारे से 
जोड़ जोड़ कर 
उसे पुख्ता करने की बात 
 हमारे जेहन में होगी .
गर हाथ हमारे 
कांपने लगे 
औरों के डर से 
आकार ही न दे पाए,
तो वो फिर टूटकर 
बिखर जाने का 
एक अनदेखा भय 
मन में सदा ही 
 करवटें बदलता रहेगा .
पहले हम दृढ हों ,
मन से , विचारों से 
ताकि बिखरती सन्तति को 

 अपने दृढ विचारों 
और दृढ संकल्पों का 
वह स्वरूप दिखा सकें 
जिसकी जरूरत 
आज सम्पूर्ण 
मानव जाति  को है. 
उनका भटकाव 
उनके बहकते कदम 
उनकी नहीं 
हमारी कमी को दर्शाते हैं 
कुछ कहीं तो है ऐसा 
हम उन्हें समझ नहीं पाए 
या फिर उन्हें समझा नहीं पाए .
सदियों से
बड़ों ने ही दिशा दी है 
फिर क्यों ?
हम खुद दिग्भ्रमित से 
उनको दिशा नहीं दे पाए ,
कहीं हम भी तो 
जाने अनजाने में 
दिग्भ्रष्ट तो नहीं हो गए .
उसका प्रतिफल 
हम देख रहे हों . 
अगर ऐसा ही है 
तो फिर थामो कदम अपने 
अभी देर नहीं हुई ,
जो चलना सीख रहे हैं 
उन्हें संस्कारों की 
डोर थमा दें और फिर 
अपने आदर्शों की तरह 
इस समाज को नवरूप दें .