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सोमवार, 6 अगस्त 2012

कैसी रचनाधर्मिता ?


कलम
जब उगलती है आग
तो बड़े बड़े
जलने लगते है.
फिर शुरू होती  है
कलम और रसूख की जंग.
वे चल देते हें
मिटाने को उसे
जो कलम
सिर्फ और सिर्फ
लिखना जानती है.
सच लिखा  तो
तोड़ दिया उसको
अगर किया
प्रशस्ति गान तो
नवाजा गया उसे
झूटी कसीदाकारी पर.
अब कोई धर्म
इससे नहीं जुड़ा है.
कोई मर्यादा इसमें नहीं बची.
लिखो ऐसा
जो बिक जाए
मालामाल करने वाले
उसको लिखने के पहले ही
खरीद लें
या कलम ही बेच दी .
वह लिखो
जो खरीदार कहे.
फिर काहे का धर्म
और कैसा धर्म ?
कैसी रचनाधर्मिता ?
उनकी क़ुरबानी व्यर्थ हुई
जो लिखते रहे
अन्याय और अनाचार के खिलाफ
ख़त्म कर दिए गए.
आज लिखो
और जिओ शान से,
कलम वह तलवार है
जो जिन्दा को मार देता है
नैतिक पतन
मृत्यु से कम तो नहीं.
वे मुँह छिपा कर
खुद को ख़त्म कर देते हें.
अब कलम
हत्यारी भी हो चुकी है.
उसका धर्म बदल गया,
उसकी स्याही
अब नीली या काली नहीं
लाल हो चुकी है.
किसी के खून से लाल.
किसी की जान से लाल.

8 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कलम और .... आपकी पारखी सोच

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूब .... यह धार बनी रहे

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति!

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

लिखो ऐसा
जो बिक जाए
मालामाल करने वाले
उसको लिखने के पहले ही
खरीद लें

सटीक व्यंग्य

सादर

सदा ने कहा…

बेहद सशक्‍त भाव ...

vandana gupta ने कहा…

्शानदार व्यंग्यात्मक रचना

nayee dunia ने कहा…

bahut badhiya

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना !
सादर !!!