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बुधवार, 10 मार्च 2010

अब नीलकंठ बनना नहीं!

अरे सरस्वती के पुत्रो/पुत्रियो
मत रचो ऐसा 
कि
सरस्वती का अपमान हो.
रचना वह नहीं
जो सिर्फ प्रशस्ति हो
रचना वो है
जिसमें समाई समष्टि हो.
अनर्गल,
निर्थक,
निरुद्देश्य,
इस कलम को उठाना 
उपासना नहीं,
उसका अपमान है.
जैसे वाणी
चाहे मधुर बोले 
या उगले गरल
सबकी अपनी अपनी मर्जी.
किन्तु
गरल के भय से 
जो खामोश हैं
वे गूंगे नहीं है,
लेकिन धैर्य है उनमें.
गरल कब तक उगालोगे 
एक दिन
वही 
विषधर बन
तुम्हें ही डस लेगा.
वे निर्विकार,
निस्पृह,
निर्दोष
अमृतवाणी से
अमृत बहाकर 
तुम्हें भी
संजीवनी देकर 
जीवन देने को
सदैव तत्पर रहते हैं.
बस विषधर की
केंचुल त्यागने का
साहस तो हो तुममें.
बैर किसी से नहीं
बस विष से है.
उसे उगलना बंद करो 
निगलने को
वो तैयार नहीं.
नीलकंठ अब बनना नहीं.
सृष्टि के आधार 
उन्हें संयुक्त ही रहने दो 
मत खींचो रेखा 
कि वे बँट जाएँ.
बिखर जायेगी ये संसृति 
हाथ किसी के कुछ न लगेगा.
इस पृथ्वी और संसृति को
सुख - शांति का दान दो, 
अमरता का वरदान दो.

5 टिप्‍पणियां:

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत ।

rashmi ravija ने कहा…

रचना वह नहीं
जो सिर्फ प्रशस्ति हो
रचना वो है
जिसमें समाई समष्टि हो.

बिलकुल सही कहा,आपने कि निरर्थक रचने से बचें...

बिखर जायेगी ये संसृति
हाथ किसी के कुछ न लगेगा.
इस पृथ्वी और संसृति को
सुख - शांति का दान दो,
काश...आपका यह सन्देश सबलोग समझ पाए और उसके अनुसार आचरण करें.....बहुत ही सुन्दर कविता

mukti ने कहा…

रचना मात्र प्रशस्ति के लिये नहीं की जाती. काश, ये बात सबको समझ में आ जाती.

बेनामी ने कहा…

achchi kavita par kitnae samjhae gae

Anita kumar ने कहा…

exactly my views also...thanks