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गुरुवार, 27 नवंबर 2008

गुमनामी के अँधेरे!

गोली, बारूद और धमाकों
की राजनीति कराने वालो
गुमनाम रहने वालो
कहते हो की हम धर्म के लिए
लड़ रहे हैं ladai।
मत सताओ हमारे वर्ग को
अपने वर्ग का पता तो बताओ
वे कब तुम्हें अपना मानते हैं।
क्यों अपनी कुंठाओं और वहशत को
धर्म और वर्ग का नाम देते हो।
खून के रंग से बता सकते हो
तुम्हारे वर्ग के खून का रंग
कौन सा है?
तुम्हारे धर्म के लोगों
के खून का रंग कैसा है?
तुम्हारी गोलियों से मरे
सिर्फ इंसान होते हैं।
रोते बिलखते परिवार
कोई अपना खोते हैं।
जब देने को कुछ नहीं
तुम्हारे पास उनको
क्यों छीनते हो -- साया उनका
उनकी रोटियों को जुटाने वाला
तुम्हारा क्या बिगड़ा है।
तुम्हारा जो भी धर्म हो
एक तरफ खड़े हो जाओ
खुदा या ईश्वर की दुहाई देने वाले
aavaaz दो
उनको देखना है कि
कितने लोग तुम्हारी जमात में आते हैं।
ये हैवानियत का खेल
इंसानियत को
इस जहाँ से मिटा नहीं सकता है।
खौफ दे सकता है
रुला सकता है
पर किसी के आंसू
पोंछ नहीं सकता है
munh छिपा कर बाहर निकलते हो
नाम तक नहीं है तुम्हारा
दूसरों के इशारे पर
गोली चलने वालो
कभी तुम्हारे भी शिकार होंगे
तुम्हारी ही गोलियों के।
ये धमाके तुम्हारे लिए शगल
घी के दिए जलने सा
जश्न मनाने का दिन
रोटी बिलखती इंसानियत
हिलाकर रख दिया
विश्व के जनमानस को
कहाँ है ये हत्यारे
शायद हममें ही छुपे हैं
वे मानव हो ही नहीं सकते है
सिर्फ हत्यारे हैं
और हत्यारों की कोई जाति नहीं होती
कोई धर्म नहीं होता।

2 टिप्‍पणियां:

mehek ने कहा…

hadson ke dard ko sahi bayan kiya hai aur satik sawal bhi,bahut badhiya

BrijmohanShrivastava ने कहा…

और भी दो ब्लॉग देखे यथार्थ और मेरी सोच पर पुराने लेख थे /कल की ताज़ा घटना पर आपकी त्वरित रचना बहुत ही अच्छी है /सच है इन की न जाती न धर्म न ये मानव हैं /कैसा कहर बरपाया है /दुष्टों ने इंसानियत को हिला के रख दिया है बहुत ही अच्छा लिखा है आपने