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सोमवार, 2 जून 2014

हाइकू !

हाइकू !
माँ बेटों को थी
आँचल में छिपाए
तपती रही।
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रिश्तों का दीप
स्नेह मांगता ही है
जलेगा कैसे?
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उदास मन
खामोश थी कलम
लिखूं तो कैसे ?
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जंग जीतना
आसान नहीं होती
उसूलों की हो।
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शनिवार, 3 मई 2014

हाइकू !


कुलदीपक
आज भी जरूरी हैं
कन्या मार दो।
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चाहे न डालें
गले में गंगाजल
चाहिए वही।
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कहाँ तक न
खोजा  कुलदीपक
अंत आ गया
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आवाज ही दी
बेटी तो आँखें भर
निहार रही।
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पत्थर पूजे
माँगा तो बेटा ही था
बेटी हुई तो ?
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आंसूं निकले
शक्ल बेटी की देख
श्राद्ध न होगा।
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नाम बेटी का
लेना भी गुनाह था
आज रो पड़े।
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बुधवार, 9 अप्रैल 2014

जीवन : पानी का बुलबुला !

जीवन
एक बुलबुला है ,
जैसे बारिश की बूँदें 
 भरे हुए पानी में 
अपने अस्तित्व को
एक बुलबुला बनकर
जीवित रखती हैं ,
उनके अंदर की प्राणवायु 
उनके अस्तित्व का 
आधार बना  रहता है। 
वह कितने छोटे छोटे बुलबुलों को 
अपने में समाकर 
बढ़ने लगता है। 
जैसे मानव अपने अस्तित्व के साथ 
और जीवनों को देकर अस्तित्व ,
एक से अनेक बनकर 
जीवन के आधार बढ़ाता है। 
किन्तु उसकी प्राणवायु 
सबमें बँट कर 
खुद में कम होने लगती है। 
प्राणवायु के जाते ह
बुलबुला पानी के साथ पानी 
बनकर बहने लगता है।
 वैसे ही जीवन भी तो 
चलती साँसों का खेल है। 
वे कभी महीनों तक 
 सिर्फ साँसों के सहारे 
जीवित कहे जाते हैं 
जीवन उस काया में 
 शेष कहाँ होता है ?
वह तो  संज्ञाशून्य सा 
"है" और " थे"के 
बीच झूलता रहता है 
और 
फिर कभी उस "थे" पर 
मुहर लगती है और 
जीवन जिनसे बना था 
उन्हीं पञ्च तत्वों में समां जाता है।
 

सोमवार, 24 मार्च 2014

वे यकीन नहीं करते !

                                  कलम का एक लम्बा विराम और फिर उठ कर चलने का प्रवाह सब अपना ही मन है।  कहीं बिंधी रही जिंदगी किसी  काम में - फिर चल पड़ा सफर और साथ हम आपके हैं .

आज उतरते हुए गाड़ी  से जो उनने देखा ,
कभी मीलों पैदल चलने से पड़े छालों की बात
सुनकर मेरी ही बातों पर वे यकीन नहीं करते।


आज के इस रोशनी से जगमगाते हुए घर ,
कभी एक लालटेन में पढ़े हैं चार बच्चे घर में
 बार बार कहने पर भी वे यकीन नहीं करते।

एक ही वक़्त जिंदगी का मेरी ऐसा भी था ,
ऑफिस में की बोर्ड पर चलने वाली ये अंगुलियां ,
आँगन गोबर से लीपती थी यकीन नहीं करते।

जिंदगी में अपनी देखे हैं कैसे कैसे मंजर ,
इम्तिहान लेने को खड़े थे कुछ बहुत अपने ,
हारे नहीं हम जीत कर निकले वे यकीन नहीं करते। 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

ख़ामोशी !

ख़ामोशी 
कुछ नहीं कहती है ,
मुखर नहीं होती ,
फिर भी 
किसी की ख़ामोशी 
कितने अर्थ लिए 
खुद एक कहानी 
अपने में समेटे रहती है। 
किसी की खोमोशी 
बढ़ावा देती है ,
अत्याचारों और ज्यादतियों को 
गूंगी जान 
बेजान समझ 
सब फायदा उठाते हैं। 
कोई ख़ामोशी 
मौन स्वीकृति भी है ,
बस जगह और हालात 
उसको विवश कर 
उसके ओठों को 
सिल  देते हैं।
उसके दर्द को कोई 
समझ नहीं पाता है। 
 एक ख़ामोशी 
 दिल पर लगे 
गहरे जख्मों के दर्द को 
चुपचाप ही पीती 
बस उसकी आँखें 
बयां करती उसके दर्द को। 
किसी ख़ामोशी में 
चेहरे  पर बिखरे भाव 
उद्वेलित मन का ताव 
सब कुछ कह जाते हैं। 
बस पढने वाला चाहिए 
ख़ामोशी नाम एक है 
उसके पीछे के अर्थ 
बस गढ़ने वाला चाहिए।  

शनिवार, 14 सितंबर 2013

पन्ने डायरी के !

 कभी पलटती हूँ,
 पन्ने डायरी के 
 यकीं नहीं होता 
 ये भी किसी की 
होती है जिन्दगी। 
पेज दर पेज 
खोले पढ़े 
तो लगा 
जैसे किसी के छाले उधड़ गए। 
उनसे रिसते लहू ने 
पन्नों को धो दिया। 
उजागर नहीं कर सकते 
फिर भी 
हर पन्ना 
उसका अपना हो 
ऐसा नहीं होता , 
किस दिन उसने 
किसका दर्द जिया 
किसका जहर पिया 
या किसका हास लिया। 
लिखा तो सब है 
लेकिन 
वे पन्ने एक बंद दस्तावेज हैं। 
किसी के दर्द को 
उजागर कैसे वो करे ?
दुनियां की समझ से परे 
सारी जिन्दगी एक डायरी में कैद है 
या सारी  दुनिया के दर्द 
उस डायरी में कैद हैं।

रविवार, 8 सितंबर 2013

माँ तेरी भावना !

माँ हर थाली में
तूने तो बराबर प्यार परोस
फिर क्यों
तेरे ही बेटे
दूसरे की भरी और अपनी खाली
देख रहे हैं थाली
उनकी नज़रों का धोखा है
या फिर
मन में रही भावना जैसी
ममता तेरी उमड़ रही है
अपने हर बेटे पर
पर ये बेटे क्यों
मैं ही क्यों?
मैं ही क्यों?
के नारे लगा रहे हैं
आज अशक्त जब है तू तो
इस घर से उस घर में
अपनी झोली फैला रही है
तेरी ही बहुएँ आज
अपनी संतति को
फिर उसी प्यार से खिला रही है
तेरे लिए उनके घर में
कुछ भी नहीं बचा है
तेरे बेटे उसके पति हैं
उसके बच्चे भी उसके हैं
पर ये तो बतला दे
तेरा भी कोई है या
फिर तू अकेली ही आई थी
रही अकेली , जी अकेली  
अब मरने को बैठी है अकेली
कहाँ गयी ममता की थाली
जिसमें भर कर हलुआ
तुमने इनको खिलाया था
आज वही हलुआ ढक कर
अपने बच्चों को खिलाती हैं
तेरा क्या होगा माँ?