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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

इम्तिहान मेरे सब्र का !

इम्तिहान मेरे सब्र का कुछ
इस तरह तो मत लीजिये.

फूल तो मांगे नहीं मैंने,
काँटों की सजा तो मत दीजिये.

हर गम कुबूल मैंने कर लिया,
अश्कों पर तो मुझे हक दीजिये.

किस तरह झेलूँ तेरी  ये बेरुखी,
आँखें बंद करने का वक्त तो दीजिये.

छुपा  लूंगी सारे जख्मों को सीने में,
लम्हे लम्हे का हिसाब तो मत लीजिये.

कौन सा लम्हा किसकी अमानत हो?
इसको तो खुद तय मत कीजिये.

इम्तिहान मेरे सब्र का कुछ 
इस तरह तो मत लीजिये.

शनिवार, 25 सितंबर 2010

अफसोस !

बहुत अपना समझ कर उन्हें ,
मैंने दिल  खोल कर अपना धर  दिया.

जो आये थे कभी हमदर्द बनाकर,
बाहर जाकर उन्होंने ही बदनाम कर दिया.

किसको समझें इस जहाँ में अपना  हम
लिखा तो नहीं रहता है चेहरे पे किसी के.

जिसके लिए बगावत की ज़माने से,
उसी ने हमें आज बागी करार कर दिया.

अपनों के  चेहरे की   परत दर परत,
खुलने लगी  कुछ इस तरह से मेरे सामने.

छुपाने की  कोशिश कर ली  बहुत मगर
खुदा ने ही उसे कुछ इस तरह बेनकाब  कर दिया. 

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ब्लॉग्गिंग के दो बरस ...........

                   
  आज मेरे ब्लॉग बनाये हुए दो बरस बीत गए. सफर बहुत ही अच्छा रहा. ये मेरा ब्लॉग ही पहला ब्लॉग थाजिसका नामकारण मैंने अपने मशीन अनुवाद के एक अंश हिंदी जेनरेटर जो की हिंदी वाक्य का निर्माण करता है, के नाम पर किया क्योंकि इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी. फिर मेरा ये ब्लॉग खो गया और मैंने बंद कर दिया . एक दिन फिर मिला और मैंने इसको कसकर पकड़ लिया. तबसे खोने नहीं दिया और इसके और भी भाई बन्धु साथ हो लिए अपनी अपनी जरूरत के अनुसार सब चल रहे हैं. फिर सफर में मिले बहुत से मित्र, शुभचिंतक, छोटे और बड़े यानि कि बुजुर्गवार भी. अब बुजुर्गवार कौन हैं? ये जो होंगे वे समझ गए होंगे. अरे वही जो मुझसे बहुत पहले से यहाँ ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं. इन सभी से मुझे दिशा निर्देश, सलाह और अपनी कमियों का भान कराया और मैंने उसे स्वीकार कर अपने को सुधारने कि पूरी कोशिश की है. 
           इस सफर में मैंने क्या पाया? इसमें सबसे पहले मैंने अपनी डायरी में लिखी कविताओं को भी सार्वजिक कर पब्लिश  कर दिया. उन तमाम ग़मों, तनावों और खुशियों को जिन्हें अब तक सिर्फ और सिर्फ मैंने जिया था - सबके साथ साझा किया. मैंने खुशियाँ , गम और हर भोगा हुआ यथार्थ साझा किया. मैं हर उस गीली  आँख की शुक्रगुजार हूँ, जिसने मेरे आंसुओं को अपनी आँख से बांटा  है. मेरे दुःख से दुखी होकर मेरे कंधे पर हाथ रख कर अपनत्व दिया है. बिना देखे, बिना मिले कई प्यारे रिश्ते बने. कई बार सुना हम रिश्तों के मुहताज क्यों हैं? क्या सामाजिक  सुरक्षा की दृष्टि से - नहीं जिसने बहन कहा तो भाई स्वीकार है, मित्र कहा तो मित्र - छोटे प्रिय बने तो बड़े बुजुर्गवार. इन्हीं में हम घूमते रहते हैं और ये वर्चुअल रिश्ते भी किन्हीं क्षणों में बहुत संबल देते हैं. 
               नौकरी और घर के बीच में बहुत तो नहीं पढ़ पाती हूँ, फिर भी कोशिश करती हूँ. गाहे बगाहे ब्लोगिंग में लोगों को गालियाँ देते सुना, शब्दों के तलवार से अपनी ही माँ, बहनों की श्रेणी में आने वाली आधी दुनियाँ की अस्मिता को तार तार करते देखा और उस कृत्य के लिए लोगों को ताली बजाते और कहकहे लगाते भी देखा. बहुत कष्ट हुआ क्योंकि मैं तो प्रबुद्ध वर्ग  से ऐसे अपशब्दों की उम्मीद कर ही नहीं सकती थी किन्तु फिर लगा कि इन गालियों और अपशब्दों पर भी तो सबका बराबर का हक है.

  •              इसका दूसरा पक्ष भी पढ़ा - मन कि अनुभूतियों को शब्दों के कलेवर को सजाकर फूलों से सजी पृष्ठभूमि में सबको नजर करते हुए देखा. मानवता की होती हुई दुर्दशा के विरोध में सबको लिखते देखा और उनके बहुमूल्य विचारों को पढ़ा, लगा कि हम जितने जागरूक हैं अगर समाज उसको जरा सा भी स्वीकार कर ले तो शायद कुछ दूसरा ही नजारा देखने को मिले. सभी ब्लोगर  बंधुओं को एक मंच पर लाकर ब्लोगोत्सव जैसे समारोह भी देखे और ब्लॉग्गिंग के लिए समर्पित सम्मान के हकदार लोगों को सम्मानित होते देखा तो लगा लेखन की रचनाधर्मिता और समर्पण का सच्चा इनाम पैसों से नहीं बल्कि उन प्रमाणपत्रों में होती है जो  ब्लॉग के साथ सजे नजर आते हैं. 

             कुल मिलाकर सब कुछ पाया ही है, खोया कुछ भी नहीं. एकाकी क्षणों में अकेला कभी नहीं पाया बल्कि और सक्रियता बढ़ गयी. पहले ऑफिस में, मैं बस अपना ऑरकुट अकाउंट खोल कर देख लेती थी और मेरे सहकर्मी कहते बस ऑरकुट ही. और अब वह बंद बस ब्लॉग ही. वो तो है, बीच बीच में खोल कर पढ़ लेती हूँ, देख लेती हूँ और सबसे मिल लेती हूँ. मन को भीड़ नहीं चंद अपनों की जरूरत होती है. 
              इस पृष्ठभूमि में मैं जन्मी और सिर उठा कर देखा
              कहाँ मैं जमीन पर पड़ी और कहाँ वे खड़े देवदार से
              उनने  हाथ बढ़ा दिया और फिर सहारा लेकर सबका                   उनके पीछे पीछे ही तो चल रही हूँ अपनी  चाल  से.

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

मानवता शेष रहेगी!

हाँ ,  मैं मानव हूँ,
जुड़ा रहा जीवन भर  
मानवीय मूल्यों से।
कभी बंधा नहीं,
अपने और परायों की सीमा में
जो हाथ बढ़े 
बढ़ कर थाम लिया,
शक्ति रही तो
कष्ट से उबार लिया।
बहुत मिले 
वक्त के मारे हुए,
अपनों से टूटे हुए,
जो दे सका
मन से, धन से या संवेदनाओं से प्रश्रय 
उबार कर लाया भी 
लेकिन पार लगते ही 
सब किनारे हो लिए.
फिर चल पड़े कदम 
और गिरे , टूटे हुओं की तरफ 
पर तब तक 
ढोते ढोते
अपने कदम लड़खड़ाने लगे 
बहुतों का बोझ ढोते
कंधे झुक गए थे,
हौंसले भी हो रहे थे पस्त 
एक दिन जरूरत थी 
तो कोई नहीं था.
अपने आँख घुमा कर 
दूसरी ओर चल दिए,
परायों की तो कहना क्या?
आँखें भर आयीं 
मानवता की कीमत 
क्या इस तरह से चुकाई जाती है?
तभी 
हाथ कंधें पर धरा 
सिर उठा कर देखा 
मेरी बेटी खड़ी थी
पापा मैं हूँ न,
चिंता किस बात की?
आपकी ही बेटी हूँ
आपकी अलख 
आगे भी जलती रहेगी.
फिर कोई और आयेगा
इस मशाल को थामने 
ये जब तक धरती है
ऐसे ही चलती रहेगी
कभी मानवता न मिटेगी।


सोमवार, 13 सितंबर 2010

हिंदी दिवस पर !

हिंद की शोभा है वो
माथे की बिंदी बनी,
कलेवर है इस देश का 
इस तरह हिंदी बनी.

अभिव्यक्ति का सहज माध्यम
सारे देश ने बनाया इसे अब,
हिंदी दिवस के नाम पर
शीश पर बिठाया इसे अब..

सहज, सुन्दर , ग्राह्य  है
ग्रहण किया जन मानस ने
अंतर से स्वीकार किया अब
जोड़ा है इसको हर अंतस ने.

परचम फहराया है अब तो 
नहीं है सिर्फ अब ये देश में,
इससे जुड़े हैं अपनी जमीं से
खुशबू बिखेर रहे हैं विश्व में

टूटी फूटी ही सही मेहमान भी
डूब जाते हैं इसकी मिठास में,
गहरे तक उतरे शब्दों को
दुहराते रहते हैं वे प्रवास में.

शनिवार, 4 सितंबर 2010

गुरुवर तुम्हें नमन !

रिश्तों की एक  डोर बंधी है,
गुरुवर उसमें बांधा तुमने,
पथरीली राहों पर भटकी,
थाम लिया था गुरुवर तुमने,
ठोकर खाकर थकी मैं जब भी,
हाथ फिरा  कर सिर पर मेरे
शक्ति का संचार किया था.
दिलासा  दे कर खड़ा किया था,
पैरों के नीचे धरती दी थी.
मानव औ' सिर्फ मानव बनकर
जीने का ये मंत्र दिया था. 
नहीं जानती निभा कितना पायी
लेकिन गुरुवर निभा रही हूँ,
जीवन हारी नहीं कभी हूँ, 
गिरी , गिरी फिर गिर कर उठी
समेटे थाती तुम्हारी अब भी
चल ही रही हूँ लेकर जग में.
ये मौका अब दिया है तुमने
करती हूँ मैं गुरुवर नमन तुम्हें 
शत शत गुरुवर नमन तुम्हें.

बुधवार, 1 सितंबर 2010

फिर से पड़ेगा आना !

कान्हा रे कान्हा,

तुम्हें फिर पड़ेगा आना.

महाभारत सा संघर्ष
हर दिशा में छिड़ा है
सत औ' असत की लड़ाई में
सत पर असत अब भारी है.
फिर से गीता के उपदेश
कर्म और योग
योग औ' वैराग्य के
अंतर की  दिशा दिखाना.
फिर द्रोपदी खड़ी है
दुर्योधन के चंगुल में फँसी
उसकी करुण  पुकार
सुनकर ही चले आना.
पांडव हुए हैं मूक
वाचाल कौरवों से
इस धरा को है बचाना.
विदुर औ' भीष्म से
खाली हुई धरा है
कर्ण के करों में
वचन की हथकड़ी हैं .
कुंती के मौन ने भी
बदला है महाभारत
उसकी भटकी दिशा को
दिशा सही दिखाना


कान्हा रे कान्हा
तुम्हें फिर से पड़ेगा आना