कभी सोचा है
शायद नहीं ,
धरा जो जननी है ,
धरा जो पालक है ,
अपनी ही उपज के लिए
मूक बनी ,
धैर्य धारण किये ,
सब कुछ झेलती रही .
धरा रहती है भले ही
सबके कदमों के नीचे
पर ये तो नहीं
कि वो सबसे कमजोर है .
हमारे कदमों तले ,
ऊँचे पर्वतों तले,
सरिता और वनों तले ,
गर्वित तो ऊपर वाले हैं .
पर्वत गर्व करें अपनी उंचाई का
मनुज गर्व करे सामर्थ्य का ,
उसके गर्भ से खींच कर तत्व सारे
खोखला कर दिया ,
लेकिन ये भूल गए
धरा के बिना खड़े नहीं रह पायेंगे
खोखले गर्भ से
कब तक पालेगी तुम्हें?
कांपती है जब वह क्रोध से
धराशायी होते वही हैं
जो धरा को पैरों तले मानते हैं .
पर्वतों की श्रृंखला भी
पत्थरों में टूट टूट कर
शरण वही पाते हैं .
औ'
विशाल हृदया धरा भी
टूटते गर्व से
बिखरे पर्वतों को शरण में
अपने लेती रही है .
वेग से आती धाराएं भी
धरा की गोद में
शांत हो फैल जाती है,
भूल जाती हैं
वे वेग अपना ,
माँ के आँचल में समां जाती है .
वो सबके कदमों तले रहकर भी
अपने कदमों में झुका देती है
और दिखा देती है
वो जीवन देती है तो
जीवन लेती भी है .