कितना अजीब सोचते हैं ये दुनिया वाले,
परिंदों को बेघर कर आशियाना खोजते हैं।
बसा कर आसमान तक मंजिलों का जाल,
अब वही तारों भरा आसमान खोजते हैं।
उजाड़ कर अपने ही खेत खलिहान,
शहर की धूप में घनी छाँव खोजते हैं।
अपने खेतों की माटी में विष बो कर,
अब शहरों में छतों पर खेत खोजते हैं।
कैसे नादान बनते हैं ये सयाने लोग ,
गाँव छोड़ कर शहरों में दाँव खोजते हैं।