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बुधवार, 29 जून 2016

बनो दीप से !




बन सको तो 
दीपक की मानिंद बनो ,
जग रोशन कर जाता है ,
खुद जल कर ही सही ,
उसका नाम 
बन चुका है 
उजाले का पर्याय। 
कितने दीप 
बचते हैं जहाँ में ?
फिर भी दीप नाम 
अमर ही तो है।  
कौन  जानता है 
माटी , बाती और तेल को,
कुछ भी तो नहीं है 
सब का संयोग ही कहें 
 या कहें संगठन कहें 
मिलकर ही सही 
कोई शिकवा नहीं 
किसी को किसी से 
एक कुनबा भी नहीं 
फिर भी 
दीपक एक है। 
बयां तो 
हम ही करते हैं ,
फिर भी 
हम खुद दीप तो क्या 
मिलकर जुगनू जैसे 
काम नहीं कर पाते हैं। 
सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना 
निर्माण में नहीं 
आज 'हम ' नहीं 
मैं की तलाश में 
खुद के अस्तित्व को 
अमर करने में जुटी है। 
फिर भी 
ये नहीं समझ रहा 
कि 
जो अमर हुए 
वे दीप नहीं 
आकाशदीप बन कर 
जग रोशन कर रहे हैं। 

रविवार, 19 जून 2016

पितृ दिवस पर !


बहुत याद आते हो तुम रोने को जब दिल करता  है ,
पापा ऐसा क्यों लगता है ,साथ हमारे आज भी हो। 

अपनी छाया में रखते थे ,अलग कभी भी नहीं किया ,
साया बन कर साथ चले थे ,साथ हमारे आज भी हो। 

कलम मैंने पकड़ी थी दिशा उसे तुमने ही दिखलाई ,
मेरे  शब्दों में अहसास बन, साथ हमारे आज भी हो। 

अपने छोटे घर औ' बड़े से दिल में एक बड़ा संसार रचा ,
आज देखती हूँ घर को जब , साथ हमारे आज भी हो। 

संवेदनाएं दी विरासत में पल पल उनको बोया मुझमें ,
आज वृक्ष बन खड़ी है मुझमें, साथ हमारे आज भी हो। 

क्यों दूर अचानक चले गए , बिना मिले कुछ कहे बिना ,
फिर पापा ऐसा क्यों लगता है,  साथ हमारे आज भी हो।


शुक्रवार, 10 जून 2016

तारणहार !

बेटा
तारणहार
कुल दीपक
और न जाने क्या क्या ?
वर्षों पहले
निकाला था घर से ,
भटकते रहे दर-ब-दर
पनाह दी किसी अनाथ ने ।
अपने अनाथ होने के दुख को
भूल जाने के लिए ,
बहुत प्यार दिया ,
बहुत आशीष लिया ।
इक दिन चल दिये
तो
बेटे को खबर दी ,
आया और संगत में बैठा रहा ।
कांधे औरों ने दिये
बाप की आत्मा
बार बार बाट जोहती रही
अब मेरा बेटा काँधे पर उठायेगा ,
फिर मुखाग्नि देगा ।
आखिर खून है मेरा ,
लेकिन
पता नहीं कब वो तो
रास्ते से वापस हो गया ।

मंगलवार, 7 जून 2016

बेबसी !



कभी कभी सामने से ऐसा गुजर जाता है कि न रोना आता है और न कुछ कर पाते हैं।  ऐसी देखी एक दिन बेबसी और फिर ये कविता रची।

स्वेद बिंदु है 
चमकती माथे पर ,
सिर पर लादे बोझ 
गड़ा गड़ा कर 
रखती हर कदम 
गिर कहीं गया 
तो 
रोटी भी नसीब न होगी। 
बच्चों की खातिर 
जुटी हैं
धूप  से जलती दोपहर में।
आँचल से बहती 
दुग्ध धार को 
छुपा लेती है। 
पेड़ की छाँव में 
भूख से बिलखते लाल को 
छोटी दुलरा रही है --
चुप हो जा भैया 
वो देखो माई आ रही है ,
फिर मिलेगा न दू दू 
मेरा राजा भैया है न। 
उसे क्या पता ?
माई को छुट्टी तभी मिलेगी 
जब घंटी बजेगी। 
आकर वह 
खुद न रोटी खायेगी 
लेकिन 
लाल का पेट भरेगी। 
कानों पड़ती 
आवाज लाल की 
स्वेद अश्रु एक साथ
बहकर चेहरा भिगो रहे थे।