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बुधवार, 30 दिसंबर 2009

नववर्ष तुम्हें शत शत शुभ हो!

नववर्ष तुम्हें शत शत शुभ हो!
नव प्रात अरुणिमा से बिखरे
खुशियाँ और खुशहाली।
प्रफुल्लित मन से
रखो पग नव दिवस में।
जगमगाते सूर्य की किरणें
उल्लास भरें जीवन में।
हर प्रात तुम्हारी
हो होली सी,
हर संध्या दीवाली बन चमके।
वंदना के स्वर औ'
अर्चना की उमंगों से
जीवन में ईश कृपा
सबको इच्छित वर दे।
फिर भी
नव दिवस पर
कुछ नए संकल्प
मन में भी लीजिये।
इस मनुज जीवन से
कुछ परहित भी कीजिये।
एक पग ऐसे चलें
हाथ में हाथ लेकर
साथ सब उनके रहें
जिनने कुछ खोया है - अभी अभी।
नियति के थपेड़ों से
बच नहीं सकता कोई
फिर भी
उन्हें शांति, धैर्य औ' साहस दे
दें उन्हें साथ होने का अहसास।
हताशा से निकालें
सहारा दें।
हो सकता है कि
हमारा ये प्रयास
जाने-अनजाने ही सही
शक्ति से भर दे उन्हें
एक नयी ऊर्जा दे
नयी दिशा मिलने पर
नया जीवन पाकर
वे
फिर से जी उठेंगे
औ' हम सब का
प्रयास सार्थक हो।
तो नव वर्ष भी सार्थक होगा।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

सिर्फ आज जिया है!

विदा गुजरे साल को
सब दे रहे हैं।
गुजर रहे हैं
साल-दर-साल
सिर्फ रात औ' दिन के चक्र में
न कल देखा,
न देखेंगे।
सिर्फ आज औ' आज
अपना है।
और इसी आज को जी सकते हैं।
कुछ बदला है तो
वक़्त के हिसाब से
कलैंडर और तारीख बदलती है।
तस्वीरे पुरानी और धुंधली होती हैं।
उतारकर नयी लग जाती हैं।
तस्वीरों में
बदलते चेहरे के अक्स
गुजरे सालों का हिसाब देते हैं।
बाद में -
क्या खोया - क्या पाया
बस यही
हिसाब शेष रह जाता है।
बस इसी तरह से
एक और साल गुजर जाता है.

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

जीवन की संध्या इतनी दुरूह क्यों?

बालकनी में बैठे दादा,
नीचे रेंग रहे लोगों को
देख रहे हैं
हसरत से,
ये अब तकाजा
हर इन्सान का ,
आज उनका तो
कल होगा हमारा।
वक्त के साथ कितना बदलें
अब पहले से तो
दिन ही नहीं हैं,
सब से सब होते हैं बेगाने।
पहले तो
हमारे गाँवों में
पार्क नहीं थे,
थीं चौपालें,
उन पर बैठे
खटिया डाले.
सब मिलकर हुक्का गुडगुडाते,
सबका सुख - दुःख
कह - सुन जाते,
सबका दुःख सबका होता था,
सबके सुख भी सबके होते,
कभी कभी
गाँव के खेतों के किनारे
पुआल जलाये
हाथ सेंकते
भून रहे है
चने , मटर के बूंट ,
भून आग पर
होला खाकर
होते मगन सब
आज तो कितने
यही न जानें,
कैसे खेत और कैसी खेती?
बच्चों ने छोड़ा
घर औ' गाँव
हमको भी
बेघर कर दिया,
महानगरों के
ऊँचे घरों में
जहाँ न छत अपनी,
न जमीं अपनी।
याद घरों की आती है,
बड़े बड़े आँगन के बीच में
तुलसी चौरे की वो बाती,
कुंएं का मीठा पानी
घड़ों और कलशों में होता,
गुड के डली और
मट्ठा पीकर
जीवन तो हमने भी जिया था,
पर अब
बस यादों ही यादों
के साए में
आँख कभी भर आती है,
जेहन में बसी
गाँव की सोंधी माटी
बहुत रुला रुला जाती है।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

मानवाधिकार दिवस - किसके लिए ?

कौन से मानव है?
जो हकदार है
इन मानवाधिकारों के।
उससे पहले की मानव को अधिकार मिले
हर्ता पहले आ जाते हैं,
अपने साम-दाम-दण्ड-भेद
सब अपना कर
अपने नाम कर लेते हैं।
अगर सही नहीं
तो जाकर देखो
कितने निर्दोष
सड़ रहे हैं जेलों में।
अपने घर में झांकें
या
पड़ोसियों के.
विक्षिप्त से
वे मौत का इंतजार कर रहे हैं।
वर्षों पहले हमने
उन्हें मृत - लापता करार दे दिया
उनके जीने की खबरें मिली
व्याकुल से घरवाले
ऊपर तक दौड़े,
इस आस में
दम तो अपने दर पर निकले,
पर कदम थक गए
कोई मानव न जागा
मानवाधिकारों की बात कौन कहे?
वे वही अन्तिम साँसें लेंगे
और पता नहीं
कौन सी गति
उनको मिल पाएगी।
क्योंकि वहां तक पहुँच
किसी की नहीं ।
जो बंद किए हैं
वे मानव ही नहीं हैं।
गले मिलकर
हमदर्दी दिखा जाते हैं
मानवाधिकार की दुहाई देनेवाले
मानवाधिकारों की समाधि
बना जाते हैं।
औ'
हम चुपचाप उस अन्याय
अधर्म पर
बस आँसू बहाया करते हैं
उनके कष्टों का अहसास
करते करते
चाँद पंक्तियों के सहारे
नारे लगाया करते हैं।
पर हमारी आवाज
किसी बंद कमरे की तरह
दीवारों से टकरा कर
वापस हम तक आ जाती है,
और हमारे कानों में
पड़ कर
हमारी ही बेबसी का
अहसास दिला जाती है,
अहसास दिला जाती है.

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

विकलांगों को समर्पित ये प्रशस्ति!

शायद क्रूरता है
ये उनके भाग्य की,
मानव तो बनाया
किंतु पूर्णता नहीं दी ।
या दी भी तो
जानकर छीन ली।
पर
जीवन तो जीना है,
एक चुनौती मानकर
असंभव कुछ भी नहीं
सक्षम और सशक्त
आत्मविश्वास से होते हैं।
नहीं तो
पूर्ण कहे जाने भी
सडकों पर रोते हैं।
उनको ये आत्मविश्वास
कुछ अपने ही देते हैं।
अशक्त समझ कर
उन्हें और अपाहिज मत बनाओ
हौसला बढाओ
साधनों से करो सक्षम
इतिहास वे रच जायेंगे।
कितने विकलांग
सुर्ख़ियों में आते हैं
क्या यों ही
नहीं जन्मदाताओं ने उन्हें
जीना सिखाया है,
मित्रों ने उन्हें
हौसला दिया है,
औ'
समाज ने उन्हें सराहा है।
तब ही तो वे
अपने अधूरे अहसास को भुलाकर
हम कहीं से भी
कमतर नहीं है।
इस जज्बे के साथ
अपनी विकलांगता को चुनौती
मानकर
सहर्ष स्वीकार कर
हमेशा आगे बढे हैं।
उनके कदम कभी
पीछे नहीं
आगे की मंजिलें ख़ुद तय करेंगे।
हम तो बस
उनकी कामयाबी पर फख्र करेंगे
और उनकी हिम्मत को दाद देकर
एक मानव के प्रति
एक मानव होने का फर्ज अदा करेंगे.

रविवार, 29 नवंबर 2009

जीव- आत्मा-परमात्मा !

क्यों जीव ही जीव का
हत्यारा है?
कभी ईश्वर, खुदा या पैगम्बर
का नाम लेकर
उन जीवों को हलाल कर दिया।
कभी आड़ लेकर धर्म की
नर संहार कर दिया।
अपने बच्चों के शरीर पर
एक बैठा हुआ कीट भी
सहन नहीं होता।
क्यों?
उसको काट लेगा
तो कष्ट होगा।
किंतु
किस लिए
क़ुरबानी के नाम पर
सैकड़ों जीवों को जीवन से
वंचित किए जाते हैं हम।
रिक्शे , टेम्पो और ट्रकों में
मिमियाते हुए
वे भी जानते है
कि आज उनका आखिरी दिन है।
उन आँखों की बेबसी और पीड़ा
पढ़ी क्या किसी ने?
वे बेजुबान असक्त है
इस लिए हम
मारने के लिए
तैयार है।
क्योंकि मानव ही
इस दुनियाँ में सबसे सशक्त है।
कहाँ दया और करुणा
छिप जाती है?
जीव कोई आत्मा बिना कहाँ?
फिर उसकी आत्मा
क्या आत्मा नहीं होती?
सब ने कहा है -
आत्मा ही परमात्मा है।
फिर हम परमात्मा को ही...............
हम तो खुश करने चले हैं
उसी देव को
किंतु
इस पाप से क्या मुक्ति
मिल सकेगी?
खूंटे से बांधकर
सर कलम कर दिया।
एक चीख निकल गई
और बेध गई।
किंतु ये क्रम
कभी बंद नहीं होगा।
जीव - जीव में अन्तर है।
वे बोल नहीं सकते
प्रतिरोध नहीं कर सकते
पर प्रतिरोध करने वालों
के भी सर कलम कर दिए जाते हैं।
हम मानव नहीं दानव हैं
जीव, आत्मा, परमात्मा
सब किताबों की बातें हैं।
किसने देखा है ?
आत्मा और परमात्मा को.
वह तो रहता ही है
अमीरों की तिजोरियों में
और कंजूसों की थैलियों में।
सशक्तों की गोलियों में.

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

शत शत नमन!

शत शत नमन ,
वीरो तुम्हें शत शत नमन
जीवन न्यौछावर मात्री भू पर
पर कितने
जीवन बचा लिए
हौसले दुश्मनों के
पस्त हैं
सर उठाते है बार बार
मगर
तुम्हारे जैसे लालों ने
उन्हें डरा कर रखा है।
सौ बार सोचेंगे
कोई
उन्नीकृष्णन, करकरे और सालकर
जैसे कई अनाम वीरों से
जब तक भारत भूमि धनवान है
ख्बाव उनके विध्वंस के
हर बार अधूरे ही रहेंगे।
बलिदान तुम्हारा अमर रहेगा
शत शत नमन
वीरो तुम्हें शत शत नमन।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

पीड़ा न बाँट पाने का अहसास

समंदर मैंने देखे हैं,
मगर बहुत दूर से,
उसकी गहराई में
डूबकर नहीं देखा।

रेत के किनारों को
भी देखा है,
मगर बहुत दूर से
उन्हें छू कर नहीं देखा।

हाथ से फिसलती रेत
सुना तो बहुत है
अहसास मगर कभी
इसका करके नहीं देखा.

हाँ
एक और समंदर
जो हर जीवन में
अनदेखा पर
अहसासों में रहा करता है।
उस समंदर में
डूबने के अहसास को
जिया है मैंने ।

वे समंदर
ग़मों, कष्टों औ' पीड़ा के
होते है।
जो हर दिल की
पहुँच से बहुत दूर
होते हैं।

उस समंदर में
डूबते हुए
पल पल मरने
का अहसास
किया है मैंने।

हाथ से फिसलती हुई
एक
जिन्दगी को
न रोक पाने
की मजबूरी के जहर
का स्वाद
लिया है मैंने ।

पल पल किसी को
मौत के मुंह जाने के
दारुण दुःख के
अहसास को
जिया है मैंने।

हम नाकाम,
नकारा, बेबस से
उन्हें मरता हुआ
देखते रहे चुपचाप।

उन्हें पीड़ा सहते हुए देख
उन पीड़ाओं को
न बाँट पाने की विवशता के
विष को पिया है मैंने।
हाँ
हम कठपुतली के तरह
नाचते रहे
औ' भवितव्यता ने
अपना काम कर दिया।
उन्हें मुक्ति कष्टों से दे दी।
औ' हम
उन कष्टों की यादों को
हाथ से फिसलती हुई
रेत की तरह
आज भी छोड़ नहीं पाये हैं.

बुधवार, 4 नवंबर 2009

शब्दों से गर मिटती नफरत!

सोचा करती हूँ,
अपने जीवन में
इस जग में
कुछ ऐसा कर सकती।

इस धरती की कोख में
बीज प्यार का बो कर
उसमें खाद
ममता की देती।

वृक्ष मानवता के
उगा उगा कर
एक दिन मैं
इस धरती को भर देती।

पानी देती स्नेह , दया का
हवा , धूप होती करुणा की
ममता की बयार ही बहती
मधुमय इस जग को कर जाती।

उसमें फिर
पल्लव जो आते
खुशियों की बहार ही लाते।
शान्ति, प्रेम के मीठे फल से
धरती ये भर जाती।

उससे निकले बीज रोपती
दुनियाँ के
कोने कोने में
जग में फैली
नफरत की
अदृश्य खाई भर देती।

सद्भाव, दया की
निर्मल अमृत धारा से
मानव मन में बसे
कलुष सोच को धोती,
निर्मल सोच की लहरों से
सम्पूर्ण विश्व भर देती।

मानव बस मानव ही होते
इस जग में
शत्रु कभी न होते
इस धरा पर
जन्मे मानव
बन्धु-बन्धु ही कहते।

ऐसी सृष्टि भी होती
अपना जीवन जीते निर्भय
सबल औ' निर्बल सभी
कथा प्रेम की रचते।

शब्दों से गर
मिटती नफरत
कुछ ऐसा कर जाती
मानव के प्रति-
मानव में
प्रेम ही प्रेम भर जाती।






गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

उधार का सुख !

भीड़ भरी सड़क पर
धूल और पसीने से लथपथ
एक रुमाल से पसीना पौछती,
रोज सड़क से
कभी कभी टूटी चप्पल
घसीटती हुई
घर तक पहुँचती थी।
वही जिन्दगी
चार दिन के
उधार के सुख में
मखमली गद्दों पर
जब गुजरने लगी
तो
रात में नींद नहीं आती है।
होटल से निकल कर
नीचे खड़ी गाड़ी औ'
शोफर दरवाजा खोलकर
सलाम कर रहा है।
चारों और गाड़ियों की
सरसराहट
देखकर लगता है
काश! बगल की सीट पर
कोई अपना होता।
कालीन बिछे फर्श पर
कई बार लड़खड़ाते बची,
कहाँ सीखी थी ,
होटलों की तहजीब
कहाँ इतने पैसे थे।
चुपचाप बगलवाले को
देखकर
खाने-पीने के
सलीके सीख लिए।
फिर भी
शर्म आ जाती थी
अपनी कुछ अटपटी सोच पर
वाकिफ ही नहीं
तो क्या करती?
जी तो रही थी
इस उधार के सुख को
पर हर पल
ये अहसास पीछा
कर रहा था
काश ! मेरे घर का भी
कोई मेरे साथ होता
मेरा सुख शायद दुगुना होता।
इस सुख से सुखी कम
दुखी अधिक हो रही थी।
जीवन का कौन सा पुण्य
यहाँ तक लाया
शायद युधिष्ठिर के
एक झूठ से
नरक के दर्शन
और मेरे किसी पुण्य से
इस स्वर्ग का दर्शन
ये क्षणिक सुख
सपने की तरह बीत गया
फिर वही कल से
चाय , खाने की किटकिट
फिर काम पर जाने का तनाव
क्या खेल खेलता है
ये ईश्वर
उधार की सुख देकर
जिन्हें कभी अभाव
नहीं समझा
मेरी नियति है
समझ कर सुख से जिया,
उसको देखकर
कभी एक पल
कुंठा उभरने लगती है।
क्या वो मेरी नियति
नहीं बन सकता था।
जो उधार का सुख समझ रही हूँ।
इस दुर्स्वप्न के
टूटने का अहसास तब हुआ
जब
कुली की आवाजें
स्टेशन पर आनी
शुरू हो गयीं
और
अपना सूटकेस उठाकर
चुपचाप उतर कर
स्टेशन पर आई ।
अब गाड़ी या शोफर नहीं
एक ऑटो लेकर
घर के लिए चल दी।
यही उसकी नियति थी,
है और रहेगी।
पर
घर , घरवाले और बच्चों का साथ
सबसे बड़ा सुख औ' स्वर्ग
कहीं हो ही नहीं सकता ।
इससे बड़ा सुख कभी
मिल ही नहीं सकता.

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

मुझे मेरी उडान भरने दो

ओ माँ
मैं तुम्हारी जिंदगी
नहीं जी सकती,
मुझे मत सिखाओ
ये दादी माँ की बंदिशें
पुरातन रुढियों की
दास्तानें,
पंख फैला कर
मुक्त आकाश में
उन्मुक्त उड़ान भरने दो।
गुनगुनाने दो
हँसी बिखेरती
गीतों की पंक्तियाँ
जो मुझे खुशी दें
औ' तुम्हें भी खुशी दें।
चाहती तो तुम भी हो
कि तुम्हारे बंधनों में
ये तुम्हारी बेटी न बंधे
औरों का क्या?
शायद
वे दूसरों के उदास चेहरों
औ' आंसू भरी आंखों
को देखकर
उनकी नियति मान लेते हैं.
पर मैं तो नहीं मान सकती।
कुछ पाने के लिए,
अगर असफल भी रही तो
फिर उठ कर वही
प्रयास दुहाराऊँगी
आज नहीं तो कल
ये आकाश अपना होगा।
अगर तुम भी साथ
नहीं दे सकती
मुझे अकेले चलने दो।
अपने अंश की पीड़ा
तुम तो समझो
मेरी हँसी में
शामिल नहीं हो सकती
तो ये आंसूं भी मत बहाओ।
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,
मंजिलों तक जब पहुंचूं
ये आशीष मुझे दे देना।
न पहुँच पाऊं तो
मेरे हालत पर
आंसू मन गिराना तुम
ये मेरी लडाई है
औ' इसके मुझे ही लड़ने दो।
ये मेरी जिन्दगी है,
इसको मुझे ही जीने दो।
अगर बेटी होना अभिशाप है,
तो यह मुझे ही भोगने दो,
तुम अफसोस मत करना,
ये निर्णय गर गरल बन गया तो
इस गरल को मुझे ही पीना देना.

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

अप्रियं सत्यम् न ब्रूयात !

सच्चाई की कसौटी पर
कसने के लिए
जब अग्नि साक्षी मानकर
खड़ी हुई,
ऑंखें नम हुई,
ओंठ थरथराने लगे
क्या करने जा रही हूँ?
औरों की नजर में
ख़ुद को औ' अपनों को
उघाड़ने जा रही हूँ.
ये सच्चाई
सिर्फ चर्चा का विषय
बना सकती है।
किसी के जीवन को
दिशा और हल
वह भी नहीं दे सकती है।
इस प्रकरण के बाद
अपनी - अपनी नजर से
आलोचना-समालोचना
सब कर सकते हैं और करेंगे।
सड़क चलते
व्यंग्य बाणों का शिकार
कौन बनेगा?
मैं ही न,
बल्कि कई पीढ़ियों तक
ये सत्य
पीछा नहीं छोड़ेगा,
आने वालों तक को
इस सच्चाई की आंच
झुलसाती रहेगी
फिर क्या मिलेगा मुझको?
कोई इस सत्य और असत्य की
विभीषिका से
निकाल कर
क्या दे सकता है?
एक नया नाम या नया जीवन।
नहीं
ये तो भ्रम मात्र है।
उस अग्नि की तपन ने
जला दिया कलुष सारा
तब जाकर याद आई
ये सूक्तियां :
सत्यम् ब्रूयात
अप्रियं सत्यम् न ब्रूयात।
और फिर
जीवन उसी तरह
पुराने ढर्रे पर
जीना शुरू कर दिया।
शायद यही प्रारब्ध है
और नियति भी।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

साहस तो करती माँ तुम!

माँ मुझको बतलाओ
क्यों मुझको सौपा तुमने
इन हत्यारों को?
दूर कहीं जाकर
फेंका था मुझको
निर्जन रास्तों या गलियारों में
बोल नहीं सकती थी
पर अहसास तो
किया था मैंने,
एक फटे कपडे में
लिपटी
कब तक झेल सकी थी
मैं
बारिश के तेज थपेड़ों को
चली गई
दुनिया की नजरों में
पर बसी हूँ
अब भी
तुम्हारी सूनी आंखों में
मैंने भी देखा था
माँ तुमको
ओंठ भींच कर सहते सब कुछ
कभी बैठ कमरे में,
कभी छिपा कर मुंह तकिये में,
फूट-फूट कर रोते,
कभी बैठ पूजाघर में
ईश्वर से कुछ कहते,
भले मैं थी
तुम्हारे गर्भ में
पर सहे तो मैंने भी
थे दर्द तुम्हारे सारे।
साहस तो करती माँ तुम,
लड़ने का अपने हक से
मुझे बचा सकती थीं
छीन के इन हैवानों से
क्या दोष था मेरा?
माँ जो सबने मुझको मार दिया,
गुनाहगार तुम भी हो
माँ
जो सौंप दिया
तुमने उनको,
बन जाती गर
दुर्गा तो काँप जाते
वे हैवान
पर माँ तुमने भी
तो मेरा दर्द न जाना।
कब तक बन सीता
अपने अंशों को
मरने के लिए
देती रहोगी।
उन्हें जीवन देकर भी देखो
कल
वही दुर्गा बन
शक्ति तुम्हारी बन जायेंगी।
एक मूक माँ के आगे
बन के ढाल अड़ जायेंगी
मुझको जीवन देकर देखो
एक इतिहास नया रच जायेंगी।


बुधवार, 22 जुलाई 2009

पाप के घड़े का छेद!

अपने नन्हे हाथों से
आँसूं पोछती हुई
माँ के गालों से,
अबोध सा मन
बेचैन होकर करने लगा
सवाल पर सवाल
माँ-माँ
मालकिन क्यों फेंककर
मारी वो बर्तन
आपने तो कुछ भी
नहीं किया था।
मैं भी मारूंगी उनको,
नहीं री
वे बड़े हैं,
हम ठहरे उनके नौकर.
पर ये पाप नहीं क्या?
तू तो कहती है
सताना पाप होता है
फिर क्यों हमेशा
सताए जानेवाला ही रोता है,
तू ही तो कहती है,
अति एक दिन खत्म होती है
पर ये तो कभी खत्म ही
नहीं होती है,
रोज - रोज बढती जाती है।
माँ कब भरेगा
इनके पाप का घड़ा
नहीं री
इनके पाप के घड़े में
एक छेद होता है
किसी गरीब के आंसुओं से
भरकर भी
रहता रीता है।
कितने ही पाप करें
फिर भी
उनके दिए
त्रास के कारण
हम पल-पल आंसू
पीते हैं
औ'
उनके पाप के घड़े
हरदम
रहते रीते हैं।

शुक्रवार, 22 मई 2009

तिलक लगाने से कोई काबिल नहीं होता.

मैं एक मीटिंग में थी और वहां का जो दृश्य था , एक मिनिस्ट्री स्तर की मीटिंग हो रही थी, उच्च पदों पर विराजमान लोगों की बात और तब मुझे लगा कि वे जो कुछ भी नहीं जानते हैं, इस शोध की दिशा में कैसे टांग अडाते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके पास उस शोध को आगे ले जाने के लिए सहायता देने का अधिकार है. उनके आक्षेप और फिर प्रत्याक्षेप सुनकर बहुत दुःख हुआ और फिर वही उसी मीटिंग में इस कविता का जन्म हुआ।

०४/०५/०९

अरे बुद्धिजीवियो
क्यों?
इस तरह उड़ा रहे हो
धज्जियाँ,
इस नई पद्धति और शोध की
जिसने पौध लगाई,
सींचा है -
अपने खून - पसीने से
उसको ही
बताने चले हो
अब उसे क्या करना है?
कल तक
इस दिशा में
अनजान थे तुम
औ' आज आलोचक
भी बन गए।
अंगुली उठाने से पहले
ये तो सोचा होता
वे तीन अंगुलियाँ
तुम्हारी तरफ है,
तुमसे कह रही हैं
चुप रहो
तुम्हें इससे
कुछ भी लेना-देना नहीं है।
इस लिए
बकवास बंद करो,
मत उछालो कीचड़
किसी की गरिमा पर
बोलना सबको आता है
बस किसे ,क्या और कब
बोलना है,
ये गरिमा है - उस मानव की
जो मानव है,
विवेक और शालीनता
जिसके लिए ही बने हैं,
आदर , सम्मान और कृतज्ञता
उसके मन में भी है
वही किसी से
कुछ पा सकता है,
कुछ पाना है
तो कुछ देना भी सीखो।
लेने से कोई छोटा
नहीं होता,
देने से
कभी घाटा
नहीं होता,
कुछ ऐसा करो
कि बाद तुम्हारे
भी कोई
याद करे तुमको
अच्छे स्वर में .
नफरत और हिराकत
से कुछ हासिल नहीं होता।
अपने मस्तक
तिलक लगाने से
कोई काबिल नहीं होता.

चुनाव - आंतरिक युद्ध

महासमर
जिसको कहते रहे सब,
क्या वाकई
एक आंतरिक युद्ध है ?
वही तो है --
देश कहाँ है?
कहाँ जा रहा है?
क्या भविष्य होगा?
इसकी किसको ख़बर है,
बस इतना ही तो है,
हम तुमपर
औ' तुम हमपर
कीचड़ उड़ा रहे हैं,
हमसे (जनता)
कभी जानना चाहा है
किसे चाहती है?
क्या चाहती है?
अपनी - अपनी
स्वार्थी नीतियों को
चाशनी में डुबोकर
सबके सामने
परोसते रहे हैं।
कुछ नहीं दिखता है
एक घना अँधेरा है
हर तरफ
एक लड़ाई -- जिसमें
न तलवारें खिंचीं -
न गोलियां चलीं -
चलते रहे वाक् शर
आक्षेप , प्रत्याक्षेप ही
वह अस्त्र बने
गरिमा जिसने
तार-तार कर दी।
अपनी दुश्मनी का
बदला लेने
बहुत अच्छा मौका मिला,
अपराधी खुले घूमने लगे
और
चुनाव की आड़ में
शक्ति का
खुला दुरुपयोग हुआ।

दलों की अपनी
अलग अलग नीति हैं
नहीं पता है उनको
कि समृद्धि है किसमें
कहाँ उपयोग करें ?
हम अपने विवेक का--
विवेक धन
कहाँ जा रहा है?
पार्कों, स्मारकों या फिर
अपनी जन्म स्थली को
चमकीले सितारों से
सजाकर
इतिहास लिखने में
इसका यह तो
नहीं मतलब
कि आप इस काबिल हो गए,
कि देश सौंप दें तुमको ,
जो नहीं जानते
कि हम कहाँ हैं?
और हमें कहाँ जाना है?
प्रगति की जरूरत कहाँ है?
विवेकहीन निर्णय
वही बन्दर के हाथ
रिमोट आ गया
क्या करना है?
इसको उसको बुद्धि कहाँ है?
और उसकी तरह ही
कुछ और बन्दर
जय हो , जय हो,
कहकर पीछे चल रहे हैं?
भोला भाला जनमत ठगा जा रहा है
कहीं तो कुछ
नजर नहीं आ रहा है।
वे विवेकहीन सही,
हमें तो देश बचाना है,
अपने निर्णय को
सार्थक दिशा में
लगाना है.

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

होली आई रे!

होली के रंग,
खेलें अपनों के संग
पी के मस्ती की भंग ,
नाचें ले के तरंग
कर लो सबको तुम तंग ,
यह है होली का ढंग .
डालो रे रंग ही रंग , ......
हंसी, ठिठोली कर
ऐसा नाचो गाओ
मारे ठहाके
हों जिनके दिल तंग,
नाचो और नचाओ
गीत गाकर शोर मचाओ
होली आई रे
होली आई रे
तुम खूब धूम मचाओ
होली है .सब मिलकर मौज मनाओ
रंजिश हर दिल की मिटाओ
सब से प्रेम से मिल जाओ
और गीत प्रेम के गाओ
इसी धूम के साथ हमारी
होली की शुभकामनाएं.........

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

सफर

जीवन का यह सफर
बस
एक परिक्रमा है,
बार-बार शुरू होती है,
सुबह से शाम तक
वही गलियाँ औ' रास्ते ,
छाँव भरे पल कब गुजरे
छाँव में पता नहीं चले,
जब फिर धूप मिली
तो कहीं छाँव नहीं थी।
थकते, लड़खडाते कदम
रुक तो नहीं सकते
सफर अभी बाकी है,
चलना औ' चलते जाना है।
किसी छाँव की आस में
बरसों धूप में गुजरे
मुश्किल से
पत्थरों पर जिए,
घावों पर
पैबंद सिये,
विवशता में
खून के घूँट पिए,
बस यही
घाव अपने दिल में लिए,
चलते ही रहे हम।
पर
हर एक परिक्रमा
वही लाकर खड़ा कर देती है
जहाँ से सफर शुरू किया था।
फिर नया सफर
नए आशियाँ की तलाश में
तिनके-तिनके समेटे किसी पेड़ पर
नया आशियाँ बनाना है
सफर अभी बाकी है
औ' फिर चलते ही जाना है.
मंजिल का पता नहीं।
चलना ही नियति है
चलते ही जाना है.