उम्र खर्च हो गया
विशेषज्ञ सोचे-समझे,
बहुत पैसे कमाने के लिए,
धनी आज बहुत हैं।
रखने की जगह नहीं,
बस चुप हो गया।
वक़्त ही नहीं मिला संभालें,
जैसे भी थे, कुछ तो करीब थे।
कम अमीर थे,
लेकिन दिल से अनमोल थे,
तब शायद हम खुशनसीब थे।
©रेखा
जीवन में बिखरे धूप के टुकड़े और बादल कि छाँव के तले खुली और बंद आँखों से बहुत कुछ देखा , अंतर के पटल पर कुछ अंकित हो गया और फिर वही शब्दों में ढल कर कागज़ के पन्नों पर. हर शब्द भोगे हुए यथार्थ कीकहानी का अंश है फिर वह अपना , उनका और सबका ही यथार्थ एक कविता में रच बस गया.
उम्र खर्च हो गया
विशेषज्ञ सोचे-समझे,
बहुत पैसे कमाने के लिए,
धनी आज बहुत हैं।
रखने की जगह नहीं,
बस चुप हो गया।
वक़्त ही नहीं मिला संभालें,
जैसे भी थे, कुछ तो करीब थे।
कम अमीर थे,
लेकिन दिल से अनमोल थे,
तब शायद हम खुशनसीब थे।
©रेखा
स्वयंभू
बनने की होड़ में
सर्वनाश पर तुले हैं
सब कुछ मिटा कर,
हम किसको दिखाएंगे अपने वर्चस्व?
कौन करेगा हमारी जय जयकार?
एक आम इंसान क्या चाहता है ?
पूछा है किसी से
नहीं तो
फिर लड़ क्यों रहे हैं ?
मर वो रहे हैं , जिनको कुछ लेना देना नहीं है।
फिर दुहरा रहे इतिहास हैं
हम क्या सीख कुछ न पाए ?
इंसान बनने की बजाय हम
हत्यारे बन चुके हैं ?
क्या फिर महाभारत अपने को दुहरायेगा?
कौन किस पर राज करेगा?
कौन कौन बच कर फिर चैन से जियेगा?
इतने विनाश और हत्याओं के बाद
नींद किसको आएगी ?
शर्वशक्तिमन होने का परचम लेकर कौन खड़ा होगा अकेला ?
और कौन स्वीकारेगा?
आज विश्व बारूद के ढेर पर नहीं,
अपने ही उन्नति के शिखर पर खड़े होकर
खुद सागर में डूब मरेगा।
क्या इंसान एक रोबोट ही रह क्या है ?
न संवेदनाए और न ही कोई आत्मा और दिल बचा है ,
फिर किस पर शासन करने को आतुर है।