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शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कैसी दीवाली - कौन सी लक्ष्मी ?

सजा दो चौखटें घर की,
रंगोली से द्वार सजाओ,
हर कोना घर का महके फूलों से,
मुडेरों पर दीप इतने सजाओ
रोशन हर दिशा हो जाये.
आज लक्ष्मी देख कर सजावट
बस इसी घर में बस जाएँ.
मुखिया घर के
नौकरों से कहते घूम रहे थे. 
तभी खबर आई,
बहू ने मायके में बच्ची को जन्म दिया है,
समधी जी बोले - बधाई हो, 
आपके घर लक्ष्मी  जी पधारी हैं. 
फ़ोन पर ही चिल्लाये - काहे की लक्ष्मी  ?
ये तो लक्ष्मी जाने का रास्ता खुल गया.
अरे डिग्री बन कर आई है. 
तुम्हें लक्ष्मी लग रही हो तो -
मय माँ के उसको वही रख लेना. 
नाना अवाक् !
अरे मूर्ख !
अनदेखी लक्ष्मी का इतना भव्य स्वागत
द्वार तक फूलों के रास्ते बने हैं
जन्मी हुई लक्ष्मी का तिरस्कार क्यों?
खबर मिलते ही कन्या की
ये लटके हुए चेहरे लेकर
मातम सा माहौल  बना  क्यों?
वह गुण, बुद्धि स्वरूप में तो
बालक की तरह ही आई है,
वह चाहेगी वही जो तुम पर
बेटे को देने के लिए है 
माँ के आँचल में दुबक कर
दूध ही तो पीना है उसे भी,
आते ही गिन्नियां तो नहीं मांगेगी तुमसे
उससे आने पर ये तल्खियाँ  फिर क्यों? 
बालक भी जन्मते ही इतना ही चाहेगा,
आते ही कहीं से लक्ष्मी का अम्बार 
तुम्हें घर नहीं लग जायेगा.
फिर गिन्नियों की खनक 
सुनाई देने लगती है क्यों?
देखोगे भो गिन्नी या फिर खोखले हो जाओगे 
भविष्य के गर्भ में है 
अभी से ये  चिंता फिर क्यों ?
बड़े होते ही चल देंगे,
सुन कर अनसुना कर देंगे,
अवज्ञा कौन करेगा?
ये मालूम है तुमको,
कन्या देहलीज के भीतर भी देखेगी तुमको
बड़े होकर कष्टों को बांटेगी भी,  
इस अबोध कन्या से बेरुखी फिर क्यों?
अब आँखें खोलो 
अपनी दृष्टि जग पर डालो,
वंश की परंपरा का ढोल पीटना
अब बंद भी कर दो.
वह लक्ष्मी ही है स्वीकारो  उसे.
सच के सामने जुबान खामोश है क्यों?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

आत्मा का शाप !


नदी के किनारे 
लाशें  मछलियों की
करुण कहानी 
सुनाती है अपनी.
यही हैं मानव 
करते हैं विषैला 
ये जीवन हमारा.
घुट घुट निकलता 
जब दम हमारा
टूटती हुई साँसे हमारी
बहुत शाप देती हैं इनको  ,
कहाँ तक बचोगे?
इसी जल के कारण 
तुम्हें में से कितने 
अपंग हो रहे हैं,
रोगों से लड़ते ,
घिसट घिसट कर 
जीवन से अपने तंग हो रहे हैं.
हम तो तड़प कर
जहाँ से गए हैं,
तुम तड़प तड़प कर
जीते रहोगे.
सिन्धु है विषैला,
सरिता भी विष भरी है,
कूपों में जीवन 
लाओगे कहाँ से?
कर्मों से तुम्हारे
प्रकृति भी हारी है,
खुद के लिए जीवन
खरीदोगे कहाँ से?
खनकते हुए सिक्के तो होंगे,
लेकिन वे जीवन 
इस बेजान धरा पर
लाकर के तुमको देंगे कहाँ से?
उजाडा है आँचल तुमने 
धरा का ,

जीवन था इस पर 
बेजुबां प्राणियों का भी
चीखे बहुत थे
मगर ये इंसानों 
कानों पे तुम्हारे हैडफोन लगे थे,
संगीत में उसके 
चीखें हमारी सुनी ही कहाँ थी? 
अपने ही हाथों से 
करते हो पाप तुम
मुक्ति उनसे मिलेगी कहाँ से?
उन मौन आत्माओं का शाप
सुना तो नहीं है,
इसका खामियाजा 
तुम्ही तो भरोगे.
उजाड़ कर वंश हमारे
अपने वंश की 
सलामती चाहते हो.
स्वयं भू हो तुम
इस अखंड धरा के,
मत भूलो
तुमसे भी कोई बड़ा बैठा वहाँ है.
इस प्रकृति से खेल कर
अमन खरीदोगे कहाँ से?
सब कुछ पैसे से मिलता नहीं है,
बना कर खुद तुम पानी
धरा के गर्भ में 
कहाँ से भरोगे?

अट्टालिकाओं के छत  पर 
बैठ निहारोगे पत्थर ,
क्षुधा  मिटाने को कुछ तो चाहिए
मगर फसलें तुम लाओगे कहाँ से?
चाहे रच डालो  इतिहास तुम हजारों
समुद्र, वृक्ष, सरिता के विनाशक 
                                                         कीमत तो इसकी चुकानी पड़ेगी.



बुधवार, 3 नवंबर 2010

                     
         सुंदर दीपों से रोशन हो, हर कोना सबके घर का.
         लक्ष्मी करें कृपा सभी पर,  ढेर रहे घर में धन का,
         मन में सुख शांति हो,  हर  प्रात हो सबके मन का,
          हर दिन हो दीवाली जैसा सुन्दर सबके इस जीवन का.

      दीपावली पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.!