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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

होली आई रे रंगीली!

होली आई रे रंगीली,
     उड़े मस्ती के रंग.....

जले मन का कलुष
होली की लपटों के संग,
गले मिले सब मानुष
भूले कल की वो जंग.

होली आई रे रंगीली
उड़े मस्ती के रंग....

चलो खेले रे होली
भीगे रंग में अंग-अंग,
गूंजे गीत फागुन के
बाजे ढोल औ' मृदंग.

होली आई रे रंगीली
उड़े मस्ती के रंग..

कहीं खेले लट्ठमार
कहीं रंगों की फुहार
निकले मन के गुबार
दिखी भंग की तरंग.

होली आई रे रंगीली 
उड़े मस्ती के रंग....

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

मुझे जीने का हक है!

न जाने क्यों
बगावत कर
तन कर खड़ी हो गई
वर्जनाओं और प्रतिबंधों की
जंजीरों को तोड़कर
नए स्वरूप में
जंग का ऐलान कर.
माँ लगी समझाने
वे बड़े हैं,
पिता हैं,
भाई हैं ,
उन्हें हक है
कि तुझे अपने अनुसार
जीवन जीने देने का।
नहीं, नहीं, नहीं..........
बचपन से प्रतिबंधों की
जंजीरों में जकड़ी
औ' अपनी बेबसी पर
रोते हुए देखा है तुम्हें
घुट-घुटकर जहर
पीते हुए देखा है तुम्हें
तुम्हारी छाया में
पिसती मैं भी रही
लाल-लाल आँखों का डर
हर पल सहमाये रहा
पर अब क्यों?
नहीं उनका रिश्ता
मैं नहीं ओढ़ सकती
जीवन भर के लिए
अपने को
दूसरों की मर्जी पर
नहीं छोड़ सकती।
जिन्दगी मेरी है,
उसे जीने का हक है मुझे
चाहे झूठी मान्यताओं
औ' प्रथाओं से लडूं
जीवन अपने लिए
जीना है तो क्यों न जिऊँ
पिता के साए से डरकर
तेरी गोद में
छुपी रही
अब नए जीवन में
उनका साया नहीं,
उन जैसे किसी भी पुरूष की
छाया भी नहीं
मैं पति से डरकर
जीना नहीं चाहती
अब परमेश्वर की मिथ्या
परिकल्पना को
तोड़कर
एक अच्छे साथी की
तलाश ख़ुद ही करूंगी
चाहे जब भी मिले
मंजिल
उसके मिलने तक
अपनी लडाई
ख़ुद ही लडूंगी
मुझे जीने का हक है
मुझे जीने का हक है
और मैं उसको
अपने लिए ही जिऊंगी.

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

यक्ष प्रश्न !

नारी हूँ

तो यही  प्रश्न है ,

जीवन समर्पित किया 
अपनी हर उम्र में
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में, 
जन्म लेकर 
पली बढ़ी 
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा  गया.
उसका वही घर बना।
मुझको कहा गया --
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
 ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर 
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार  में 
खोजे और सोचे 
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु 
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई 
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा  'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझा होता तो?'
जब बार बार सुना 
औ' हर घर में सुना
 सिर्फ मैंने ही सुना 
तब 
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
 जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई 
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझा  कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही, 
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा  यक्ष प्रश्न 
हमेशा खड़ा रहेगा.

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कर्म करो कुछ ऐसे!

यदि नारी हो
तो क्या?
निर्बल मत बनो,
याचना के लिए
कर मत उठाओ,
कर्म कर उन्हें
सार्थक बनाओ ।
कर्म कभी होता निष्फल नहीं,
कम कभी अधिक भी देता है,
जन्म लेने की यही सार्थक दिशा होगी
ममता का जो सागर
ईश्वर ने दिया है
सिक्त कर प्रेम से
खुशी कुछ चेहरों पर लाओ
कभी इन हाथों से
उठाकर सीने से लगाओ
कभी इन हाथों से
आंसू किसी के सुखाओ
दीप एक आशा का
कर्म कर सबमें जगाओ
ज्योति उनके भी
मन में जलाकर
नई दिशा सबको दिखाओ
सोचो एक दीप जलाकर
प्रकाश कितनों को देता है
स्वयं को मिटा कर
रास्ता दिखा जाता है
हमसे सार्थक वही,
मनुज बनकर हम भी
क्यों न सार्थक हों

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

एक रिक्त अहसास!

हाँ
मैं नारी हूँ,
वन्दनीय औ' पूजिता
कहते रहे हैं लोग,
कितने जीवन जिए हैं मैंने
कहाँ तो सप्तरिशी की पंक्ति में
विराजी गई,
सतियों की उपमा दे
पूजी गई।
मर्यादाओं में भी भारी
पड़ रही थी,
तब जागा पुरूष अंहकार
उसको परदे में बंद कर दिया,
सीमाओं में बाँध दिया
चारदीवारी से बाहर
देखना भी वर्जित था।
पति, पिता और पुत्र
यही पुरूष दर्शनीय थे।
तब भी जी रही थी
ओंठों को सिये
चुपचाप
आंसुओं के घूँट पी रही थी.
इसमें भी सदियाँ गुजरीं,
कहीं कोई
सद्पुरुष जन्म
नारी को भी मानव समझा
बहुत संघर्ष किए
तब
उनकी जंजीरों और बंधनों को
कुछ ढीले किए
शायद सद्बुद्धि आनी थी
नारी की भी
यही से बदलनी कहानी थी।
बदलते बदलते
आज यहाँ तक पहुँची
तो फिर
नकेल की होने लगी
एक नई तैयारी
क्या डाल पायेंगे नकेल?
ख़ुद सवालों में घिर गए
क्योंकि
अब की नारी
माटी का पुतला नहीं,
दुर्बल या अबला नहीं
ख़ुद को बचा सकती है।
अरे अपनी जन्मदात्री
का तो ख्याल करो
ये वही नारी है
जो सृष्टि को रचती है
शेष उसी से है
ये मानव जाति
ये नारी वह हस्ती है।
उसे संस्कार या मर्यादाओं
की शिक्षा तुम क्या दोगे?
जिससे सीखकर तुम आए हो
उसी को आइना दिखा रहे हो।
सडकों पर तमाशा
बनाकर क्या
वन्दनीय बन जाओगे।
सीता बन यदि
चुप है तो-
सब कुछ चलता है
गर दुर्गा बन
संहार पर उतर आई
तो तुम ही निंदनीय बन जाओगे।
सहेजो, समझाओ
उसे बहन बेटी बनाकर
प्यार से जग जीता जाता है
उनको दिशा दो
मगर प्यार से,
नासमझ वह भी नहीं,
जगत के दोनों ही
कर्णधार हैं।
नर-नारी से ही बना
ये संसार है।
इसे संयमित रहने दो
सृष्टि को नियमित चलने दो
न विरोधाभास है
न बैर का आभास है
एक दूसरे के बिना
दोनों एक रिक्त अहसास है.

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

कलयुग का मसीहा !

आज के युग में 
कुछ ईसा बाकी हैं
जो
मानवता की सलीबें
अपने कंधे पर उठाये 
आज भी घूम रहे हैं.
बगैर ये सोचे 
की कल क्या ये हमारे लिए
साथ होंगे?
इससे बेखबर
जीवन भर 
शक्ति भर
तन-मन-धन से 
परोपकार करते रहे.
पर वक़्त किसके साथ है?
अपने वक़्त पर सबको परखा
परीक्षा की घड़ी 
जब उसके सामने थी
हर द्वार खटखटाया 
आवाजें दीं
चीख-चीख कर सबको बुलाया 
पर
हाय से उसकी किस्मत 
मानवता के दुश्मनों ने
उसी सलीब पर चढ़ा  दिया.
निःशब्द-निस्तेज-निष्प्राण
वह  मसीहा इतिहास बन गया.
फिर 
उसकी मूर्ति बनी 
अनावरण किया गया
राजनीति के तवे पर रोटियां सिंकी.
'वह भले थे,
जो बना सबके लिए किया,
ऐसे सज्जन इस कलयुग मैं 
कभी - कभी पैदा होते हैं.'
इन शब्दों  से
उसका मान और सम्मान किया गया
उसके  जीवन भर के कर्मों के लिए
इतना ही काफी था क्या?
पर यही क्या कम है?
एक चौराहे  को 
उसका नाम दे दिया,
लोग याद करेंगे 
एक और मसीहा भी हुआ था.
जो सिर्फ दूसरों औ' दूसरों के लिए 
जिया था और मारा था.