हाँ
मैं नारी हूँ,
वन्दनीय औ' पूजिता
कहते रहे हैं लोग,
कितने जीवन जिए हैं मैंने
कहाँ तो सप्तरिशी की पंक्ति में
विराजी गई,
सतियों की उपमा दे
पूजी गई।
मर्यादाओं में भी भारी
पड़ रही थी,
तब
जागा पुरूष अंहकार
उसको परदे में बंद कर दिया,
सीमाओं में बाँध दिया
चारदीवारी से बाहर
देखना भी वर्जित था।
पति, पिता और पुत्र
यही पुरूष दर्शनीय थे।
तब भी जी रही थी
ओंठों को सिये
चुपचाप
आंसुओं के घूँट पी रही थी.
इसमें भी सदियाँ गुजरीं,
कहीं कोई
सद्पुरुष जन्म
नारी को भी मानव समझा
बहुत संघर्ष किए
तब
उनकी जंजीरों और बंधनों को
कुछ ढीले किए
शायद सद्बुद्धि आनी थी
नारी की भी
यही से बदलनी कहानी थी।
बदलते बदलते
आज यहाँ तक पहुँची
तो फिर
नकेल की होने लगी
एक नई तैयारी
क्या डाल पायेंगे नकेल?
ख़ुद सवालों में घिर गए
क्योंकि
अब की नारी
माटी का पुतला नहीं,
दुर्बल या अबला नहीं
ख़ुद को बचा सकती है।
अरे अपनी जन्मदात्री
का तो ख्याल करो
ये वही नारी है
जो सृष्टि को रचती है
शेष उसी से है
ये मानव जाति
ये नारी वह हस्ती है।
उसे संस्कार या मर्यादाओं
की शिक्षा तुम क्या दोगे?
जिससे सीखकर तुम आए हो
उसी को आइना दिखा रहे हो।
सडकों पर तमाशा
बनाकर क्या
वन्दनीय बन जाओगे।
सीता बन यदि
चुप है तो-
सब कुछ चलता है
गर दुर्गा बन
संहार पर उतर आई
तो तुम ही निंदनीय बन जाओगे।
सहेजो, समझाओ
उसे बहन बेटी बनाकर
प्यार से जग जीता जाता है
उनको दिशा दो
मगर प्यार से,
नासमझ वह भी नहीं,
जगत के दोनों ही
कर्णधार हैं।
नर-नारी से ही बना
ये संसार है।
इसे संयमित रहने दो
सृष्टि को नियमित चलने दो
न विरोधाभास है
न बैर का आभास है
एक दूसरे के बिना
दोनों एक रिक्त अहसास है.