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बुधवार, 22 जुलाई 2009

पाप के घड़े का छेद!

अपने नन्हे हाथों से
आँसूं पोछती हुई
माँ के गालों से,
अबोध सा मन
बेचैन होकर करने लगा
सवाल पर सवाल
माँ-माँ
मालकिन क्यों फेंककर
मारी वो बर्तन
आपने तो कुछ भी
नहीं किया था।
मैं भी मारूंगी उनको,
नहीं री
वे बड़े हैं,
हम ठहरे उनके नौकर.
पर ये पाप नहीं क्या?
तू तो कहती है
सताना पाप होता है
फिर क्यों हमेशा
सताए जानेवाला ही रोता है,
तू ही तो कहती है,
अति एक दिन खत्म होती है
पर ये तो कभी खत्म ही
नहीं होती है,
रोज - रोज बढती जाती है।
माँ कब भरेगा
इनके पाप का घड़ा
नहीं री
इनके पाप के घड़े में
एक छेद होता है
किसी गरीब के आंसुओं से
भरकर भी
रहता रीता है।
कितने ही पाप करें
फिर भी
उनके दिए
त्रास के कारण
हम पल-पल आंसू
पीते हैं
औ'
उनके पाप के घड़े
हरदम
रहते रीते हैं।