तलाश!
आज बहुत दिन बाद
निकली हूँ खोज में
कहीं देखे हैं किसी ने,
मेरे शब्द खो गये,
दूसरे शब्दों में
हिरा गये कहीं।
खोजा मन के हर कोने में,
बाहर भी खोजा गहराई से,
सिर्फ वही नहीं
मेरे भाव भी गुम है
मेरे अंर्त से।
रचूँ क्या?
लिखूँ क्या?
कलम भटक रही है,
खोज में उनके
कोई तो बता दे कि
रचना क्या है?
इतनी विकृति दिख रही है,
विद्रूपता छाई है
जीवन के हर प्रहर में।
कहीं बिखरे बिखरे से घर हैं,
कहीं घर रह गये है,
ईंट गारे के मकान।
एक छत के नीचे
सब गूँगे जी रहे है।
बस आवाजों को तरसते कान
मंद रोशनी के बचे हैं।
@रेखा श्रीवास्तव