रिश्तों की एक डोर बंधी है,
गुरुवर उसमें बांधा तुमने,
पथरीली राहों पर भटकी,
थाम लिया था गुरुवर तुमने,
ठोकर खाकर थकी मैं जब भी,
हाथ फिरा कर सिर पर मेरे
शक्ति का संचार किया था.
दिलासा दे कर खड़ा किया था,
पैरों के नीचे धरती दी थी.
मानव औ' सिर्फ मानव बनकर
जीने का ये मंत्र दिया था.
नहीं जानती निभा कितना पायी
लेकिन गुरुवर निभा रही हूँ,
जीवन हारी नहीं कभी हूँ,
गिरी , गिरी फिर गिर कर उठी
समेटे थाती तुम्हारी अब भी
चल ही रही हूँ लेकर जग में.
ये मौका अब दिया है तुमने
करती हूँ मैं गुरुवर नमन तुम्हें
शत शत गुरुवर नमन तुम्हें.
शनिवार, 4 सितंबर 2010
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4 टिप्पणियां:
maine bhi shraddha suman bikhere hain guru ke aage....
गुरुओं को नमन
श्रद्धा भाव से परिपूर्ण कविता....सभी गुरुओं को नमन
गुरु को समर्पित .... बहुत अच्छी रचना है ...
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