शनिवार, 4 सितंबर 2010

गुरुवर तुम्हें नमन !

रिश्तों की एक  डोर बंधी है,
गुरुवर उसमें बांधा तुमने,
पथरीली राहों पर भटकी,
थाम लिया था गुरुवर तुमने,
ठोकर खाकर थकी मैं जब भी,
हाथ फिरा  कर सिर पर मेरे
शक्ति का संचार किया था.
दिलासा  दे कर खड़ा किया था,
पैरों के नीचे धरती दी थी.
मानव औ' सिर्फ मानव बनकर
जीने का ये मंत्र दिया था. 
नहीं जानती निभा कितना पायी
लेकिन गुरुवर निभा रही हूँ,
जीवन हारी नहीं कभी हूँ, 
गिरी , गिरी फिर गिर कर उठी
समेटे थाती तुम्हारी अब भी
चल ही रही हूँ लेकर जग में.
ये मौका अब दिया है तुमने
करती हूँ मैं गुरुवर नमन तुम्हें 
शत शत गुरुवर नमन तुम्हें.

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