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बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

आधार

जीने के लिए
एक ठोस धरातल चाहिए
रेत के ढेर पर
सजे जीवन के महलों को
क्या कहा जा सकता है।
रात के अंधेरे में
न जाने कब और कहाँ
ढह जाएँ अनजाने से
संशय की स्थिति में
जीते हुए वर्षों गुजर गए।
पलक मूंदते ही
ढहने के भयावह सपने
तैरने लगते हैं,
कहीं दूर बहुत दूर
धरा की तलाश में
चलते चलते थक गए
न कहीं छाँव , न दरख्त और न छतें
छाले फूटने लगे पाँवों के
पाँव भी सवाल करने लगे
मुझसे ही
कहाँ तलक चलना है
बेसबब, बेसहारा
ख़ुद अपना सहारा क्यों नहीं
बनती है
हम साथ हैं न,
पैर की धमक से रेत भी
चट्टान बन सकती है,
इरादे हों बुलंद तो
समंदर में भी
आग जल सकती है

1 टिप्पणी:

manvinder bhimber ने कहा…

हम साथ हैं न,
पैर की धमक से रेत भी
चट्टान बन सकती है,
इरादे हों बुलंद तो
समंदर में भी
आग जल सकती है।
bahut sunder