मेरे मन की खंडित वीणा के,
तारों में स्वर कम्पन क्यों?
स्वर लहरियां मचल रही हैं,
विरह राग की सरगम क्यों?
कुछ मधुर वचन की आशा में ,
मिले कटु औ' तिक्त स्वर क्यों?
टूटती लय कुछ बता रही है,
अंतर्वेदना मन की क्यों?
जग तो था ये मनहर बहुत,
जहर बुझे वचन फिर क्यों?
स्वयं भू की सर्वोत्तम कृति ,
मानव ने खोयी मानवता क्यों?
किसा भुलावे में भटकता मन,
शून्य के आयामों तक क्यों?
मिजराब मचलती तारों पर ,
नीरव हैं फिर सारे स्वर क्यों?
***प्रकाशित १९७८ में.
सोमवार, 13 अक्टूबर 2008
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3 टिप्पणियां:
अति सुन्दर !
""मेरे मन की खंडित वीणा के,
तारों में स्वर कम्पन क्यों?
स्वर लहरियां मचल रही हैं,
विरह राग की सरगम क्यों?
कुछ मधुर वचन की आशा में ,
मिले कटु औ' तिक्त स्वर क्यों?
टूटती लाया कुछ बता रही है,
अंतर्वेदना मन की क्यों?""
वाह,बहुत ही सुंदर मार्मिक भावाभिव्यक्ति........
behad khubsurat
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