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बुधवार, 4 जुलाई 2012

नारी है ना - री !

नारी कीर्तिमान 
बना रही है,
धरती से आकाश तक 
बुलंदियों के परचम 
फहरा रही है।
जयजयकार भी 
सब जगह  पा  रही है।
लेकिन कितनी हैं? 
बस अँगुलियों पर 
गिन सकते हैं।
आज भी 
हाँ आज भी पुरुष 
पत्नी का रिमोट 
अपने हाथ में ही 
रखना चाहता है,
वह गृहिणी हो या हो कामकाजी 
अगर वह(पुरुष)) चाहे तो  
मुंह खोले 
न चाहे तो रहे खामोश 
प्रश्न करने का हक 
तो बस उसी का है ,
जब चाहे दे सकता है 
अपमान के थपेड़े 
जब वो चाहे तो 
करेगी तू समर्पण 
वो तेरा दायित्व है 
और उसका अधिकार।.
कब और किसे  तू जन्म देगी
 ये निश्चित भी तू नहीं
 वह करेगा .
सिर्फ और सिर्फ प्रजनन का 
एक यन्त्र हो तुम .
विरोध अपने प्रति अन्याय का 
ये हक तो पैदा होते ही 
खो दिया था।
नारी को समझो पहले,
हर बात पर ना - री 
पहले ही दिया गया है।
फिर सोचो अपने अस्तित्व को
 फिर उसके लिए 
आने वाली के अस्तित्व को 
बचाना ही .होगा
 खुद अधिकार नहीं मिले 
पर अब उसके लिए तुझे 
दुर्गा बन जाना होगा।
जब तक तू सीता रहेगी,
त्रसित स्वयं औ' उसे भी रखेगी।.
दुर्गा बन संहार न कर
बस अपनी शक्ति से अवगत करा उनको 
अगर विध्वंस पर उतरी तो 
ये सृष्टि रसातल में चली जायेगी 
तब इस ना-री का अर्थ
 सारी  दुनियां समझ जायेगी .
सारी  दुनियां  समझ जायेगी।.

13 टिप्‍पणियां:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

नारी का पहला रूप हमने अपनी मां की शक्ल में देखा। पता नहीं उसने अपने आप को कभी पहचाना या नहीं लेकिन हमने उसे हमेशा ही अपनी मां के रूप में पहचाना। वह कल भी इसी में संतुष्ट थी और आज भी है।
हम बचपन में स्कूल से लौटते थे तो हमें अपनी मां घर पर ही मिलती थी। हमें कभी पड़ोस की आंटी से चाबी लेकर घर का ताला नहीं खोलना पड़ा। कभी भूखा नहीं रहना पड़ा। कभी मैगी से पेट नहीं भरना पड़ा। बच्चों को पैदा करने के बाद उनकी परवरिश अपने आप में एक बहुत बड़ा जॉब है। पैसे में ज़्यादती के लिए परवरिश में कमी छोड़ दी जाए यह अक्लमंदी नहीं होती और मां घर के बजाय ऑफ़िस में हो तो परवरिश में कमी रहनी लाज़िमी है। पड़ोस के अंकल या घर के नौकर मां की ग़ैर मौजूदगी में बच्चे-बच्चियों के साथ जो करते हैं, वह अख़बारों में और टीवी पर सब देखते ही हैं। रूपया ज़रूरत है, मक़सद नहीं। ज़रूरतें पूरी हो रही हों तो मां की प्राथमिकता बच्चा होना चाहिए, भले ही बच्चे के विचार कुछ भी क्यों न हों !
यही सोचकर हमने अपने बच्चों को भी वही उपलब्ध कराया जो कि हमें बचपन में मिला था। हमारे बच्चे जब घर आते हैं तो उन्हें अपनी मां घर पर ही मिलती है।
बाहर के दुख उठाने और झिड़कियां खाने के लिए हम बहुत हैं। अपने बच्चों की मां को जब हम कुछ नहीं कहते तो भला कोई और ही क्यों कुछ कहे ?
हमारी पत्नी भी इसी में संतुष्ट है।
इनमें न कोई सीता है और किसी को दुर्गा बनना पड़ा।
आम से लोग हैं और आम से रूप हैं।
ऐसे ही तौर तरीक़े वाला कोई आदर्श चुना जाए तो जीवन सरल हो जाए।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

सही कहा आपने,रिमोट अपने हाथ में रखना उचित समझते हैं वे लोग.
-सार्थक कविता के लिये बधाई !

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

अनवर भाई आपका कहना ठीक है लेकिन ऐसे घर अपवाद नहीं तो अँगुलियों पर गिने जाने वाले होते हैं. मैंने भी अपने जीवन हजारों रंग लोगों के जीवन में देखे हैं और जब भी औरत के अन्दर झांक कर देखा है तो उनकी हंसी और मुस्कराहट के पीछे छिपा दर्द भी देखा है. मेरी माँ भी घर में रहती थी और वही सब मुझे भी मिला है लेकिन सब घरों में ऐसा नहीं होता है. बड़े बड़े अफसरों, शिक्षकों और डॉक्टरों के घरों के उदाहरण मेरे सामने हैं. ये एक कटु सत्य है कि पुरुष अपने को श्रेष्ठ समझने के झूठे अहंकार से मुक्त नहीं हो पाया है. इसको हम प्रतिशत के आधार पर देखें तो शायद १० प्रतिशत ही ऐसा वर्ग होगा जो नारी को बराबर का दर्जा देता है और उसकी इच्छाओं का सम्मान करता है.

Udan Tashtari ने कहा…

हम्म!!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

behatreen... :))

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ना - री का सार्थक विश्लेषण ..... नारी अपने घर में पूर्ण रूप से संतुष्ट है यह भी पुरुष ही तय करता है ....

अच्छी प्रस्तुति

सदा ने कहा…

गहन भाव लिए सशक्‍त लेखन ... आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर भावप्रणव!
शेअर करने के लिए आभार!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

शीर्षक कमाल का है! बातें सच्ची हैं।

रचना ने कहा…

as always a power ful play of words from you rekha

poonam ने कहा…

sundar aur sashkt rachna...badhai

shalini rastogi ने कहा…

बहुत विचारपूर्ण व ह्रदय स्पर्शी रचना......

vandana gupta ने कहा…

वाह वाह वाह बेहद सशक्त भाव लिये शानदार प्रस्तुति।