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बुधवार, 21 दिसंबर 2016

ख़ामोश !

खामोश 
कभी कहता है कोई,
खामोश
कभी रहता है कोई,
फिर भी
जीवन में
इस खामोश का
अटूट रिश्ता है।
पता नहीं
जन्म से लेकर
अब तक
वो कितना बोली होगी ?
- उत्तर नहीं देते ,
- जबान नहीं लड़ाते
- क्रोध नहीं बढ़ाते
या
- जबान बंद रखो
किसके पर्याय है ?
ये एक
शासित के पर्याय है।
जो जन्म से मृत्यु तक
शासित रही ,
दलीलें उसके खिलाफ 
और सबूत भी बहुत है।
लेकिन
कितनी मुखर हुई?
अगर हुई भी तो
मर्यादाहीन कही गयी।
जब से आँखें खुली
पहले से ही
कानों में खामोश पड़ा।
उम्र के किस पड़ाव पर
वह बोलने की
अधिकारी हुई ?
पिता ,
भाई
पति या पुत्र
सभी ने अपने अधिकार में
रखा कर
खामोश रखा।
उसकी ख़ामोशी
उसकी कमजोरी न थी
वह दृढ थी
वह जीना चाहती थी
हर वो रिश्ता
जो उसे ईश्वर से मिले हैं
बिना कुछ खोये
वह अगर
मूक बधिर होती तो
जीवन बेहतर होता
न सुनती
न गुनती
और न आहत होती
वह सिर्फ मुस्कराती
सिर्फ मर्यादित होती
सिर्फ मर्यादित रहती ।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

ये कैसा दण्ड !

 प्रकृति क्रुद्ध
फटते हैं बादल
दरकती है भू
तड़ित छूने लगी
आसमाँ से जमीं को
पर
इति तो हमारी है
मानव की है
दण्ड  ही तो है
हमारे कर्मों का
 भोगते तो वे हैं ,
जिनका कोई दोष नहीं।
मेहनतकश है जो ,
खेतों में बैठे थे ,
घनघोर बारिश में
शरण लिए थे
पेड़ के नीचे।
अबोध बीन  रहे थे
आम बगीचे में
तेज बारिश से
गिरे थे बागों में
और
बचपन का
खिलंदड़ापन उन्हें भारी पड़ा।
कितनों का घर सूना हो गया।
और वे जो
इनकी हत्या के दोषी है ,
जो खनन कर रहे ,
जो दोहन कर रहे ,
जो ध्वंस कर रहे
धरा का
भू गर्भ का
पर्वतों का
 वे तो महफूज़ हैं
ये कैसा दण्ड
जो निर्दोषों को मिल रहा है।

बुधवार, 29 जून 2016

बनो दीप से !




बन सको तो 
दीपक की मानिंद बनो ,
जग रोशन कर जाता है ,
खुद जल कर ही सही ,
उसका नाम 
बन चुका है 
उजाले का पर्याय। 
कितने दीप 
बचते हैं जहाँ में ?
फिर भी दीप नाम 
अमर ही तो है।  
कौन  जानता है 
माटी , बाती और तेल को,
कुछ भी तो नहीं है 
सब का संयोग ही कहें 
 या कहें संगठन कहें 
मिलकर ही सही 
कोई शिकवा नहीं 
किसी को किसी से 
एक कुनबा भी नहीं 
फिर भी 
दीपक एक है। 
बयां तो 
हम ही करते हैं ,
फिर भी 
हम खुद दीप तो क्या 
मिलकर जुगनू जैसे 
काम नहीं कर पाते हैं। 
सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना 
निर्माण में नहीं 
आज 'हम ' नहीं 
मैं की तलाश में 
खुद के अस्तित्व को 
अमर करने में जुटी है। 
फिर भी 
ये नहीं समझ रहा 
कि 
जो अमर हुए 
वे दीप नहीं 
आकाशदीप बन कर 
जग रोशन कर रहे हैं। 

रविवार, 19 जून 2016

पितृ दिवस पर !


बहुत याद आते हो तुम रोने को जब दिल करता  है ,
पापा ऐसा क्यों लगता है ,साथ हमारे आज भी हो। 

अपनी छाया में रखते थे ,अलग कभी भी नहीं किया ,
साया बन कर साथ चले थे ,साथ हमारे आज भी हो। 

कलम मैंने पकड़ी थी दिशा उसे तुमने ही दिखलाई ,
मेरे  शब्दों में अहसास बन, साथ हमारे आज भी हो। 

अपने छोटे घर औ' बड़े से दिल में एक बड़ा संसार रचा ,
आज देखती हूँ घर को जब , साथ हमारे आज भी हो। 

संवेदनाएं दी विरासत में पल पल उनको बोया मुझमें ,
आज वृक्ष बन खड़ी है मुझमें, साथ हमारे आज भी हो। 

क्यों दूर अचानक चले गए , बिना मिले कुछ कहे बिना ,
फिर पापा ऐसा क्यों लगता है,  साथ हमारे आज भी हो।


शुक्रवार, 10 जून 2016

तारणहार !

बेटा
तारणहार
कुल दीपक
और न जाने क्या क्या ?
वर्षों पहले
निकाला था घर से ,
भटकते रहे दर-ब-दर
पनाह दी किसी अनाथ ने ।
अपने अनाथ होने के दुख को
भूल जाने के लिए ,
बहुत प्यार दिया ,
बहुत आशीष लिया ।
इक दिन चल दिये
तो
बेटे को खबर दी ,
आया और संगत में बैठा रहा ।
कांधे औरों ने दिये
बाप की आत्मा
बार बार बाट जोहती रही
अब मेरा बेटा काँधे पर उठायेगा ,
फिर मुखाग्नि देगा ।
आखिर खून है मेरा ,
लेकिन
पता नहीं कब वो तो
रास्ते से वापस हो गया ।

मंगलवार, 7 जून 2016

बेबसी !



कभी कभी सामने से ऐसा गुजर जाता है कि न रोना आता है और न कुछ कर पाते हैं।  ऐसी देखी एक दिन बेबसी और फिर ये कविता रची।

स्वेद बिंदु है 
चमकती माथे पर ,
सिर पर लादे बोझ 
गड़ा गड़ा कर 
रखती हर कदम 
गिर कहीं गया 
तो 
रोटी भी नसीब न होगी। 
बच्चों की खातिर 
जुटी हैं
धूप  से जलती दोपहर में।
आँचल से बहती 
दुग्ध धार को 
छुपा लेती है। 
पेड़ की छाँव में 
भूख से बिलखते लाल को 
छोटी दुलरा रही है --
चुप हो जा भैया 
वो देखो माई आ रही है ,
फिर मिलेगा न दू दू 
मेरा राजा भैया है न। 
उसे क्या पता ?
माई को छुट्टी तभी मिलेगी 
जब घंटी बजेगी। 
आकर वह 
खुद न रोटी खायेगी 
लेकिन 
लाल का पेट भरेगी। 
कानों पड़ती 
आवाज लाल की 
स्वेद अश्रु एक साथ
बहकर चेहरा भिगो रहे थे। 


बुधवार, 9 मार्च 2016

तस्वीरें और यादें !

कुछ धुँधली सी 
यादों पर 
जब पड़ जाती है 
उजली सी तस्वीरों का 
चमकता हुआ सूरज। 
फिर क्यों ?
वापस हम 
जीने लगते हैं 
अतीत के उन 
पीले होते हुए पन्नों को। 
कुछ मधुर 
कुछ तिक्त 
कुछ कटु 
सब गुजरे  हुए पल 
फिर से जीने के लिए 
उन तस्वीरों में घुस जाऊं। 
उन पलों को 
फिर से चुरा लाऊँ। 
कैसे भी ?
बस एक बार 
बच्चों का वही बचपन 
वही भोलापन 
फिर वापस आ जाए
कुछ दिनों के लिए सही।
दुनियां के अलग अलंग 
जगहों पर 
जी रहे बच्चे 
एक बार फिर 
एक साथ  मेरे पास आ जाएँ। 
निहार लूँ जी भर कर ,
दुलार दूँ जी भर कर ,
फिर और फिर 
कुछ भी नहीं 
कुछ भी नहीं चाहिए।