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शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

ये कैसा दण्ड !

 प्रकृति क्रुद्ध
फटते हैं बादल
दरकती है भू
तड़ित छूने लगी
आसमाँ से जमीं को
पर
इति तो हमारी है
मानव की है
दण्ड  ही तो है
हमारे कर्मों का
 भोगते तो वे हैं ,
जिनका कोई दोष नहीं।
मेहनतकश है जो ,
खेतों में बैठे थे ,
घनघोर बारिश में
शरण लिए थे
पेड़ के नीचे।
अबोध बीन  रहे थे
आम बगीचे में
तेज बारिश से
गिरे थे बागों में
और
बचपन का
खिलंदड़ापन उन्हें भारी पड़ा।
कितनों का घर सूना हो गया।
और वे जो
इनकी हत्या के दोषी है ,
जो खनन कर रहे ,
जो दोहन कर रहे ,
जो ध्वंस कर रहे
धरा का
भू गर्भ का
पर्वतों का
 वे तो महफूज़ हैं
ये कैसा दण्ड
जो निर्दोषों को मिल रहा है।