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बुधवार, 30 जनवरी 2019

आंधियां !

आंधियां चल रहीं थी कशमकश की,
हम खड़े खड़े तय कर सके मंजिलें

एक एक कर गुजर गए सब अपने ,
हम इन्तजार में देखते रहे काफिले

 अपने  से कोई सपना भी  मिला सका
चलते चलते ख़त्म हो गए  ये सिलसिले।

इन्तजार कहाँ तक करें कुछ भी पाने का?
बीच में ही ले उड़े मेरे सपनों को दिल जले।

आज भी आँखें  खोजती है कुछ अपनों को,
जिन्हें ले गए अनचाहे वक़्त के जलजले।





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पीड़ा!

शक्ति और अधिकार का
जब होने लगे दुरूपयोग ,
तब ही होने लगता है
परिणत वियोग में संयोग ,

हरदम मुस्कराती आँखें
जब आंसुओं से जाती हैं।
दारुण दुःख की पीड़ा भी
वे मूक बन सह जाती है

मूक, त्रसित ' उत्पीड़ित
झर-झर बहते अश्रु कण
मुखरित हो, हो रुदित
यंत्रणा की पीड़ा सहे हर क्षण

अब ऐसा सम्भव होगा
कभी तो अन्दर धधकती 
ज्वालामुखी फट जायेगी 
वह नहीं,
तो बोलेगी उसकी अगन।

क्योंकि , त्रसित ' कुंठित की
आत्मा कभी मूक नहीं होती
और घातक बन उगलती है
अग्निबाण ,
वाक् शर  से करती है
अनदेखा अनजाना विद्रोह।

सह पाओगे उसका विद्रोह
उसे रोक पाना सम्भव भी नहीं है,
छवि ध्वस्त कर देगी '
बेनकाब भी
उन शरीफ चेहरों को
जो दोहरा जीवन जीते हैं

तुम्हारे हक़ में भी
बेहतर यही होगा उन्हें
मूक बनाओ,
जीने दो ' बोलने दो
ज्वाला शांत होती है
जब मुखरित होती है

हर आत्मा भी पाषण नहीं होती
जो चुपचाप सहती रहे,
खून के आंसू पीती रहे
दफन हो जाए
बिना जबान खोले
बिना एक शब्द बोले.