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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

nihshabd din!

एक निःशब्द दिन
पीड़ा बहुत दी,
किन्तु सुकून से पूर्ण
मौन आत्मा से
मनन करके
kuchh अच्छा ही पाया
वाणी संयम की shiksha
व्यर्थ ही नहीं दी गयी।
तब हम तलाशते हैं
अंतर में प्रतिष्ठित
सत-असत विचारों को
तर्क और वितर्क से
ग्राह्य -अग्राह्य के बीच
भेद करते हुए
ग्रहण करने के लिए
प्रतिबद्ध होते हैं।
बहुत न सही
आत्मशोधन की ये क्रिया
मानव मन से
महा मानव बनाने की दिशा में
एक रोशनी की लकीर
जरूर बनती है।
जो है सत्य जीवन का ।
अनंत पथ है जीवन का।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

टूटते सपने !

कई बच्चे अपने भविष्य के लिए सपने सजाये पढ़ रहे थे किसी ने खेती गिरवी रखी तो बच्चे को शहर में रख कर तैयारी करवाई। कई बच्चे दो या उससे अधिक साल से तैयारी कर रहे थे कि अचानक पता चला कि हमारे डाक विभाग की गलती से बच्चों के फार्म गंतव्य तक पहुंचे ही नहीं है। वे बिलख ही तो पड़े हैं। जो पैसे वाले हैं उनके लिए सही कहीं भी पैसे से दाखिला दिला देंगे लेकिन जो अपने बच्चे की मेधा पर भरोसा करके ही अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उन्हें पढ़ा रहे हैं उनका क्या होगा? उनके एक डॉक्टर बनने का सपना कहीं टूट जाय लेकिन इसके लिए जिम्मेदार लोग फिर भी जिम्मेदार नहीं मान रहे हैं अपने को
कुछ ऐसा ही तो लगता है उन भुक्तभोगियों को - जिनके सपने अभी अधर में लटके हैं और लोग उनको उपदेश दे रहे हैं। उन्हें क्या पता की फसल के गेंहूँ बेच कर कोचिंग की फीस पिता भर देते हैं और बच्चे शहर में अपनी पढ़ाई के साथ ट्यूशन करके बाकी खर्च निकाल रहे हैं उस पर भी उनके भविष्य के साथ ऐसा मजाक होना क्या सही है?


वर्षों से जुटे वे अपने सपनों को सजाने में,
सपने टूटने पर तो कोई आवाज नहीं होती

तड़प के रह गए वे मासूम से दिल सुनकर
टूटने पर लगा यही तो कहीं गाज नहीं होती।

कहा ज़माने ने कि उठ कर फिर से चल दीजिये
टुकड़ों से लिपटने से मंजिलों की आगाज नहीं होती।

बिलख ही तो पड़े थे वे मुरझाये से उनके चेहरे,
होता तो सब गर किस्मत हमसे नाराज नहीं होती।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

न तेरा है और न मेरा है।

जाने क्यों उसने खड़ा कर दिया इस मोड पर,
बाहर है तेज आंधियां और भीतर घना अँधेरा है

लड़ रहे हैं हम अपने ही खून से जिसके लिए,
सोचा है कभी हमने वो तेरा है और मेरा है

आँखें खोल कर सब देखते क्यों नहीं अब भी,
इस जिरह और जेहाद से अलग भी नया सवेरा है

आसमां के नीचे ही गर गुजरती है सुकून की रात
फिर तो जरूर ये सारे जहाँ का ही साझा बसेरा है

इन महलों और दौलत को ले जायेंगी ये आधियाँ,
गर मुहब्बत है दिल में तो सारा जहाँ ही तेरा है

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

अब आगे क्या?

दिल के छालों की दवा
पैसों से नहीं आती
मन में पसरा हो मातम तो
हंसी ओठों पर नहीं आती
सब झूठे हैं दावे
खून खून की तरफ दौड़ता है,
पानी हो जाये तो
उसमें लहरें भी नहीं आतीं
खून जम जाता है रगों में,
सर्द पड़ जाते हैं अहसास
फिर
दिल में कसक भी नहीं आती
जब चल दिए जहाँ से
लाश तौल दो पैसों से
तो क्या?
आखिरी वक्त में अपनों से
एक बूँद पानी की भी
उनके नसीब में नहीं आती
हम
गैरहों तो क्या ?
वे अपने सही
परायों के वीराने तो रहें
कभी तो झांक लें
सामने की बंद खिड़कियों में
जिनसे अब बाहर आती नहीं रोशनी ,
पता नहीं कौन सा गम
उसको खा रहा हो,
सिसकियाँ भी अब
गले से बाहर नहीं आतीं
पैसे की होड़ में
रोबोट बना गया इंसान
संवेदना , दया और ममता
सब ख़त्म हो चुकी है
खबर तक नहीं लेते
गोद में खेलने वाले,
पैसे से ममता का मोल
चुकाने वाले
तुम्हें शर्म नहीं आती
सब कुछ ब्योछावर किया
दो हांथों - दो आँखों ने
आज बंद होती वे आँखें
टूटती हुई साँसों की आवाज
गज भर के फासले पर
रहते हुए भी
तुमको सुनाई नहीं दी.
तुम्हें इनसे कोई भी
लगन या ममता नजर नहीं आई
अब समेटो अपनी दुनियाँ
वे तो मिट ही चुकी हैं
अब आगे क्या?
कुछ और भी होना है

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

सत्यमेव जयते !



अन्ना
तुम आगे चले
तो हम तुम्हारे साथ है।
देश के हालात पर
त्रस्त तो हम सभी हुए
पर गाँधी सा
दृढ संकल्प व्यक्तित्व
नहीं हमारे साथ था।
आप आज आगे खड़े है
करोड़ों आपके पीछे चले हैं.
सदियों पहले त्रस्त थे
फिरंगियों के राज से
क्योंके वे तो व्यापारी थे।
आज हम
अपने ही लोगों से
जो जोंक बनकर
लगातार चूस रहे है
धन हमारा औ' फिर
आँखें तरेर कर कह रहे हैं
कौन है दूध का धुला?
वे जो सरकार हैं, सरकारी हैं
सब कीचड से सने हैं।
पर
वह जो ढोता है बोझा,
खीचता है रिक्शा,
सवारी ढो रहा है,
मीलों पैदल चलकर
सर पर गठरी लिए
शहर में आकर लुट रहा है।
उनकी गाढ़ी कमाई का हिस्सा
ये निगल रहे हैं।
आसमान छूती कीमतें
किसकी देन हैं?
उनकी जो सोने की सलाखों पर ही
चैन से सो पाते हैं
और सोचते हैं
कौन अपना है जिसे
करोडपति बना दे?
जहाँ उठी नजरें कालिख पोते खड़े हैं,
ये जन प्रतिनिधि है --
विग्रह करें तो
जन को छोड़ चुके हैं
चुनाव जीतने के बाद ही,
उनके प्रति दायित्व भी
बस ये निधि के लिए
जी रहे हैं।
जब तक पद पर हैं
पैसे ही खा रहे हैं और
पैसे ही पी रहे हैं।
उनके सरमाये भी तो
उसी में पनपकर
सर पर छत बनकर
अड़े खड़े हैं।
क्या बिसात इंसान की
उनकी गर्दन तक पहुँच जाएँ।
कौन किसको करेगा बेनकाब
अपनी नकाब के हटने के डर से
खामोश उन्हें बचाने की
जुगत में सभी जुटे हैं।
कौन किसकी करे शिकायत
कौन अब परदा उठाये,
लुटने के लिए तो बस
आम जनता ही लुटी है।
इसी लिए अन्ना तुमने
पीछे यही जनता जुटी है।
आगे रहो तुम
पीछे तुम्हारे है हम सभी।
जन -जन को जगाया है तुमने
ये धर्म युद्ध बन जायेगा।
एक दिन फिर गूंजेगा यही
सत्यमेव जयते ! सत्यमेव जयते!

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

इम्तिहान दिया है मैंने !

अपने हक में आये तेरे इस दर्द को ,
आहिस्ता-आहिस्ता पिया है मैंने।

जब न सहा गया तो भींच कर होंठों को ,
नाम लेकर तेरा हर पल जिया है मैंने।

किसने पूछा है कभी जिन्दगी में मुझसे ,
कौन से ज़ख्म पर कैसा पैबंद सिया है मैंने।


होंठों पर हंसी लेकर औ आँखों में नमी ,
दुनियाँ के कहने पर इम्तिहान दिया है मैंने।

दिख न जाए आँखों में तस्वीर तेरी,
भूल से भी तेरा नाम न लिया है मैंने।

अपने दर्द तो जी ही चुके हम अब तक ,
दोष भी तो कभी तुमको न दिया है मैंने।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

हम साथ होंगे।

पीछे पीछे जाने की आदत नहीं है,
आवाज दोगे तो हम साथ होंगे

नजर आयें फिर भी ये अहसास होगा,
तुम्हारे हाथों में हर वक्त मेरे हाथ होंगे

कदम से कदम मिलाकर हम चलेंगे,
तुमसे कोई मेरे निहित स्वार्थ होंगे,

छलके कभी गम में तेरी आँखों से आंसूं,
समेटने को मेरा आँचल ' हाथ होंगे

बिछाते चलेंगे हम फूल तेरी राहों में,
गर काँटों से भरे कोई हालात होंगे

गर अकेले चलोगे अँधेरे में फिर भी,
उजाले बने हम तेरे साथ साथ होंगे