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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

दीवार !

 दीवारें

खड़ी होती है ,

टूटती रहती हैं,

चाहे जितनी ऊँची क्यों न हो ?

जो बनी है वो नष्ट होगी ।

नाशवान तो मानव भी है ,

फिर भी 

मुट्ठी जैसे दिल में 

अगर खिंच जाती है दीवार तो

उस दिल से भी छोटी दीवार

बिना ईंट गारे के

अभेद्य, अटूट और अक्षुण्य होती है ।

तब दिल, दिमाग और जिस्म भी

शिला हो जाते है ।

किसी कर्म के अभिशाप से ,

यही कटु यथार्थ समझो ।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

हमसफर !

 जिंदगी एक सफर है

जो जीवन भर

सतत

चलता ही रहता है ,

और

ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता है।

उसमें कितने सफर

होते हैं ?

कितने पड़ाव आते हैं ?

और कितने हमसफर मिलते हैं ?

कहीं ये गलत तो नहीं

हमसफर तो शायद एक ही होता है।

फिर क्या कहेंगे ?

सहयात्री - हमसफर

एक ही तो है

लेकिन

हमसफर जिंदगी भर साथ सफर करता है

और सहयात्री अपनी मंजिल के आते ही

चल देता है हाथ हिला कर।

अंतर क्या है ?

सिर्फ शब्दों का

और अर्थ बदल गए।

एक के जाने पर

सफर रुकता नहीं है

और एक के जाने से

सफर ही नहीं

जिंदगी भी कुछ दिनों के

थम सी जाती है।

अहसास को जीने की आदत

होने तक चारों और

वह हमसफर ही तो होता है।

सांस के एक रुक जाने से

जीवन भर का साथ

ऐसे मिट जाता है

जैसे

कभी साथ रहा ही न हो।

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

ओ कृष्णा फिर आ जाओ!

ओ कृष्णा
तुम फिर आ जाओ
धरती फिर त्रस्त है
अब एक नहीं
कई कृष्णा बन कर
तुमको आना होगा।
द्वापर में --
एक रची गयी महाभारत
वो रची द्यूत क्रीड़ा
तब खामोश से
सब रचते रहे ,
बिछाते रहे बिसात ,
द्रोपदी एक थी

एक था धृष्टराष्ट्र ,
एक था दुर्योधन ,
एक था दुःशासन ,
आसान था पांडवों को शरण देना।
आज धरती पर
धर्म और सत्य की गरिमा
मिटती जा रही है।
अब कौरवों की जमात
खड़ी है हर गली और सड़क पर ,
अब कैसे बचाओगे इन कृष्णाओं को
जो हो रही हैं निर्वस्त्र 
हर जगह, हर तरह से
अब तो आ जाओ बचाने को इन्हें
कलियुग में बचाओ तो जानेंगे 
तुम नहीं बदले
युग बदल गये ।

सोमवार, 20 जुलाई 2020

दर्द हवेली का !

विरासतें थक जातीं हैं, पीढ़ियों तक चलते चलते,
और फिर ढह जाती हैं, अकेले में पलते पलते ।

हर कोना हवेली का अब भरता है  सिसकियाँ ,
चिराग भी बुझ चुके है , अंधेरों में जलते जलते ।

आत्मा इस हवेली की , भटक रही है बदहवास ,
जाना उसे भी पड़ेगा , अब उम्र के ढलते ढलते ।

उम्र के इस पड़ाव अब , किस तरह बढ़ेंगी साँसें ,
पीढ़ी बदल चुकी हैं ,  हम पुराने हुए गलते गलते ।

 वो बाग महकता था जो फल और फूलों से ,
ठूँठ बने दरख़्त कल के , चुक गये हैं फलते फलते ।

वो वारिस जिनकी किलकारियां , गूँजी थीं मेरे आँगन में ,
छोड़ कर चल दिए हमें , बेगाने  बनकर छलते छलते ।

रविवार, 19 जुलाई 2020

रिश्तों की कहानी !

रिश्ते एक पौध
पलते है जो दिलों में
प्यार का पानी दें,
हवा तो दिल देता है
फिर देखो कैसे?
हरे भरे हुए वे
जीवन महका करेंगे।

अकेले और सिर्फ
अपने की खातिर
अपने सुख की
खातिर जीना बहुत आसन है,
सोच बदलो
औरतों के लिए भी
जीकर देखो तो वे
बहुत कुछ सिखा देंगे।

पानी किसी भी पौध में दें 
जरूरी नहीं कि
अपनी ही बगिया का हो,
फूल खिलेंगे और महक करेंगे
खुशबू बिखरेगी
बिना भेद के होता है कैसे
गैरों से प्यार दिखाना होगा।
एक हैं सब धरती पर 
अगर सीखने का जज्बा है 
जानने की मर्जी तो है
इंसान से इंसान को जोड़ें हम कैसे
खुदबखुद आ जायेगा ।
इतना छोटा नहीं
इंसान से इंसान का रिश्ता
चीरो जिगर को 
सबमें बस यही सब होगा
जान लेना
मायने रखता है दिल और जिस्म में
धर्म, जाति, गरीब और अमीर के
इस सोच को दूर करना होगा। एक से जज्बात हैं,
वे उस प्यार करते हैं? 
ऐसी इबारत लिख देंगे।

शनिवार, 4 जुलाई 2020

शहीदों से ...!

वीरो तुम्हें
कैसे दूँ श्रद्धांजलि !
सीमा पर शहीद होते तो
फ़ख्र होता है ।
अभी तो
गद्दारों ने अपने ही देश में,
अपने अपराधों की फेहरिश्त में
और एक वारदात बढ़ा कर
क्या रुतबा बढ़ाया है ?
आँखे बरसती अगर
तुम्हारे बलिदान में ,
तो अंगारे भरे
दिल से कोसती उनको ,
जो वायस बने
कुछ अपने ही
तुम्हारी मौत के ।
श्रद्धांजलि तब देंगे
जब वे मारे जायेंगे ।

रविवार, 21 जून 2020

जिंदगी रेत सी !

आज
जब मची हाहाकार
और लगता है ,
कि
हर एक जिंदगी
रह गई है
मुट्ठी भर रेत की तरह ।
बंद मुट्ठी में
कितने कण शेष हैं
अब नहीं पता है।
न उम्र , न काल, न साँसें
सब चुक रहीं हैं ,
बेवजह, बेवक़्त, बेतहाशा
हर दुआ, हर दवा मुँह छिपा रही है ।
हर कोई अकेला आया है
और अकेला ही जायेगा ।
आज सच हो गया है -
घर से ले गये अकेले औ'
वहाँ से लिपटे कफ़न में अकेले ही चले गये ।
आखिरी यात्रा में चार कदम भारी थे ।
कोई चल ही न पाया ।
और जाने वाले चले गये ।
पार्थिव के ढेर होंगे और श्मशान छोटे पड़ जायेंगे ,
ऐसा तो नहीं पढ़ा था किसी किताब में।
नयी इबारत लिखी जा रही है ,
कल के लिए इतिहास में
एक नया काल लिख जायेगा
जिसे कोरोना काल कहा जायेगा ।

मंगलवार, 9 जून 2020

गुमनाम !

वो संगतराश
जिसे लोग पत्थर दे जाते थे
कुछ अपने होते थे
और कुछ पराये भी होते।
वह उन्हें तराश कर
ढाल देता एक आकार में,
रास्ते के वे पत्थर मुखर हो उठते ।
आते वे और ले जाते,
किसी ने सजा लिया घर में
और किसी ने भेंट कर दिया ।
किसी ने बैठाकर मंदिर में,
उन्हें टकसाल बना लिया ।
वो जिंदगी भर
उन बेतरतीब पत्थरों को
रूप देता रहा,
आकार देता रहा,
सिर्फ हुनर के लिए,
लेकिन उसका खरीददार कोई न था ।
पत्थर मेरा
तो हकदार भी हम
तुम्हें गढने का शौक था
फिर उस आकृति से क्या ?
कभी सवाल किया -
तो दुत्कार दिया
तुम्हारा हुनर मेरे ही पत्थरों पर निखरा
वर्ना कौन जानता था ?
ये आकृतियाँ भी नहीं
गुमनाम रहो , गुमनाम जिओ ।
ये वो कृतियाँ नहीं ,
जिन पर नाम लिखे जाते है,
जिन्हें गैलरियों में नाम दिए जाते है।
वो हुनर सीख लो
तब आ जाना ,
दाम तब लगायेंगे।
खरीददार तब ही आयेंगे ।

सोमवार, 1 जून 2020

खामोशी !

बेटियों के उदास चेहरे
अच्छे नहीं लगते
माँ के कलेजे में हूक उठती है।
फिर भी
वो खामोशी से सह जाती हैं
पूछने पर
"कुछ नहीं माँ बेकार परेशान रहती हो।
बस थोड़ी सी थकान है।"
वो माँ जो पढ़ लेती है
चेहरे के भाव को
इन दलीलों से संतुष्ट नहीं होती।
वो हँसती , खिलखिलाती ,
कोयल सी आवाज में गाती
तो
ठिठक जाते थे पैर
अब तो गुनगुनाना भी भूल गई ।
जब रखती पाँव मंच पर
रौनक बिखर जाती थी और
एक एक शब्द चुन कर  बनाती थी वो प्रवाह
घोलती रस कानों में
मोह लेती थी मन ।
आज खुद को बंद कर एक कमरे में
माँ से भी मुखर नहीं होती ।
गर मुखर होती तो
वो उदास नजरें अपना मुँह न चुराती ।
न वो खामोशी एक माँ को रुलाती ।

सोमवार, 25 मई 2020

ये कैसा अन्याय ?

हे विधाता
ये काल चक्र कैसा है?
धरती और आकाश सभी से तूने मृत्यु रची है।
किसके किसके घर उजड़े हैं?
किसके टूटे है परिवार?
कौन धरा पर तड़प रहा है
कैसा है किसका व्यवहार ?
नहीं दया आती है तुझको
मानव के जीवन पर
कभी गगन से ,
कभी धरा से,
कोई आदि अंत नहीं है
पूरा विश्व जलता अग्नि में
और किसी को ले गया तूफान।
जल ने मारा, अग्नि ने मारा,
कहीं मारता है आकाश,
कहीं धरा ले रही है प्राण,
कहीं महामारी का त्राण ।
भेजी तूने मृत्यु की पाती
किसे मिली है किसे नहीं
फिर भी सब बने काल का ग्रास
हो रहा है जन जीवन का ह्रास ।
कौन रहेगा , कौन बचेगा?
इसका भी है नहीं कोई भान ।
वो भी नहीं रहा सुरक्षित
जो करते रक्षणका काम,
सेवा करने वालों की टूट रही है साँस
ऐसे जग में क्या होगा जीकर
जहाँ मची हो त्राहिमाम ।
कोई आदि और अंत नहीं है
निर्दोषों के प्राण गए हैं ।
दोषी बैठे हैं महलों में,
लिए करोड़ों का वरदान ।
मानव ने मानव के बीच में खींची है लंबी रेखा ।
मिले कभी ना यह मानवता ऐसा कभी न पहले देखा।

सोमवार, 18 मई 2020

हर नदिया गाती है !

तट पर बैठो सुनो जरा ,
 हर नदिया कुछ गाती है ।

कल कल करती जल की धारा
रुक कर ये एक बात बताती है।
 
तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ  गाती है ।

निर्मल मन रख जब करना तुम ,
अर्पण हो या तर्पंण शांति लाती है।

 तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ गाती है ।

लहरों  में उसके संगीत बसा है।
सदियों  से इतिहास दिखाती  है ।
 
 तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ गाती है ।

गंगा, यमुना , गोदावरी ,नर्मदा,
अपने जग में नाम बताती है।

तट पर बैठो सुनो जरा,
हर नदिया कुछ गाती है ।

बैठ किनारे खोलो मन की गाठें ,
दर्शन प्राणिमात्र को सिख़ाती है ।
 
तट पर बैठो सुनो जरा
हर नदिया कुछ गाती है ।

समझ सको तो समझ लो जल का,
जीवन में हमें मोल समझाती है।

तट पर बैठ सुनो जरा,
हर नदिया कुछ गाती है ।

शनिवार, 16 मई 2020

हाइकु !

हाइकु

ये धरा हिली 
वो महसूस किया
हिला ये जिया।
***
भय में जीना
मरने से बुरा है
दण्ड निरा है।
***
जीवन अब 
अनुशासित जीना
नहीं है खोना।
***
विश्व आ रहा
अब पीछे हमारे
वेदों के द्वारे।
***
कोरोना क्या है?
प्रकृति की सज़ा है
एक रज़ा है ।
***


शुक्रवार, 8 मई 2020

ऊँ त्र्यम्बकं.....!

दर्द और डर
दोनों में नींद नहीं आती है,
दर्द तो इंसान का अपना ही होता है
और भय
वह तो न जा रहा है
बहुशंका और कुशंकाएँ
उपज है।
रात की खामोशियों के बीच 
कुत्तों के सामूहिक रुदन से
मन काँप ही तो जाता है।
और भयभीत मन
महामृत्युंजय के मानसिक जप में
आँखें मूँद कंर जुट जाती है।
फिर से I
ट्रैक पर सोते मजदूर
जो सोते हुए शव हो गये।
अपना दर्द भूल जाना
अहसास उनके परिजनों का
बन कर आँसू दोनों ओर लुढ़क जाते हैं।
याद आती है अपनी बेटी की तस्वीर
पीपीई किट में 
किसी गोताखोर की तरह
और फिर से बंद करके -
"हे ईश्वर सबकी रक्षा करो।"
फिर से आश्वस्त है कि 
उन्होंने कवच पहना सबको दिया
आँखें मूँद कर सोचती है
अवतार में लाखों की मौत
किसी न किसी बहने से
ये त्राटक
क्या प्रलयंकर का कोप है?
यही प्रलय है।
चेत गए तो जियेंगे
नहीं तो मृत्यु की धारा को धारण करने के लिए
कोई शिव तो बैठा होगा कहीं
आइये आह्वान करें -
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे ……।

मंगलवार, 5 मई 2020

हाँ मै हूँ बबूल !





हाँ मै हूँ बबूल !

जिसे न कोई रोपे जग मेंं,
खुद ब खुद उगता बढ़ता हूँ
नहीं धूप वर्षा की जरूरत
रहते जिसमें शूल ही शूल,
 ्हाँ मैं शूल हूँ बबूल !

नहीं चाहिए खाद औ पानी
फिर भी करके मैं मनमानी
जहाँ तहाँ उग ही आता हूँ 
चाहे धरती हो प्रतिकूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

रक्षक भी बन सकता हूँ 
खेतों पर मैं बन कर बाड़ 
सीमा पर पहले ही रोकूँ
दुश्मन को बनकर त्रिशूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

आयुर्वेद ने समझा मुझको
ऋषियों ने देकर सम्मान
गोंंद , छाल या फल हों
औषधियों में किया कबूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !




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बुधवार, 29 अप्रैल 2020

नादान!

आज भी इंसान
है कितना नादान
मौत से दो कदम खड़ा है,
फिर भी अपनी जिद पर अड़ा है ।
शेखी समझता है कानून तोड़ने में
क्या मिलता है नहीं जानता जोड़ने में।
वो रहम नहीं करेगा ,
गर लग गया गले से ,
फिर तुम कहाँ औ बाकी सब कहाँ ?
जिये हो जिनके लिए ,जीते है जो तुम्हारे लिए ,
कुछ उनकी भी सोचो ।
देखना तो दूर छूने से करेंगे इंकार,
किसी लावारिस की तरह
राख हो जाओगे।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
कभी खत्म होगा ये कहर
तब की देख तो लेना सहर।
नहीं तो
तस्वीरों से चिपट कर रोयेंगे अपने
हाथ में राख लिए कल के सपने ।
कदर कर लो जिंदगी की,
दुबारा नहीं मिलेगी,
जो हाथ में है सहेजो उसको,
खुद भी जिओ औरों को जीने दो ।

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

हाइकु

दिन में रात
आँधी औ बरसात
माह कौन रे।
***
दहशत में
जीवन हैं हमारे
कोरोना मारे ।
***
बंद घर में
साँस भी घुटती है
जाँ अधर में।
***
वो दिखते है
एक रोबोट जैसे
बचाये कैसे ?
***
दीप जलाये
बैठी है उसकी माँ
साँसत में जाँ।
***
वो कर्मवीर
खड़े हैं सीना तान
बचा लें जान।
***

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कहते हैं सभी कोरोना हूँ !

कहर बन कर आया जरूर हूँ ,
विश्व में भी कहलाया क्रूर हूँ ,
जन्म दिया किसने ये प्रश्न है ?
वही जिन्हें अपने पर गुरूर है।

                               हाँ हर तरफ सबका रोना हूँ।
                               कहते हैं सभी कोरोना हूँ।

प्रकृति के नियमों को तोड़ कर ,
पर्वतों को मशीनों से  जोड़ कर ,
ध्वस्त कर दी रचना  धरा की ,
रख दिया धाराओं को मोड़ कर।

                               हाँ हर तरफ सबका रोना हूँ।
                               कहते हैं सभी कोरोना हूँ।

कुछ दिनों को बंद प्रदूषण की मार ,
शांत हो वातावरण, हो शोर की हार ,
 स्वच्छ हुआ आकाश नील वर्ण का ,
वर्षों बाद देखा है गगन धुंआ के पार।

                               हाँ हर तरफ सबका रोना हूँ।
                               कहते हैं सभी कोरोना हूँ।

मकान बन गए घर गुलजार हो ,
नन्हों को मिल गया ममता प्यार हो ,
चेहरे मुस्कराते हैं सभी के आजकल,
बंदिशें भले हो फिर भी ये बहार हो.

                               हाँ हर तरफ सबका रोना हूँ।
                               कहते हैं सभी कोरोना हूँ।