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सोमवार, 25 मई 2020

ये कैसा अन्याय ?

हे विधाता
ये काल चक्र कैसा है?
धरती और आकाश सभी से तूने मृत्यु रची है।
किसके किसके घर उजड़े हैं?
किसके टूटे है परिवार?
कौन धरा पर तड़प रहा है
कैसा है किसका व्यवहार ?
नहीं दया आती है तुझको
मानव के जीवन पर
कभी गगन से ,
कभी धरा से,
कोई आदि अंत नहीं है
पूरा विश्व जलता अग्नि में
और किसी को ले गया तूफान।
जल ने मारा, अग्नि ने मारा,
कहीं मारता है आकाश,
कहीं धरा ले रही है प्राण,
कहीं महामारी का त्राण ।
भेजी तूने मृत्यु की पाती
किसे मिली है किसे नहीं
फिर भी सब बने काल का ग्रास
हो रहा है जन जीवन का ह्रास ।
कौन रहेगा , कौन बचेगा?
इसका भी है नहीं कोई भान ।
वो भी नहीं रहा सुरक्षित
जो करते रक्षणका काम,
सेवा करने वालों की टूट रही है साँस
ऐसे जग में क्या होगा जीकर
जहाँ मची हो त्राहिमाम ।
कोई आदि और अंत नहीं है
निर्दोषों के प्राण गए हैं ।
दोषी बैठे हैं महलों में,
लिए करोड़ों का वरदान ।
मानव ने मानव के बीच में खींची है लंबी रेखा ।
मिले कभी ना यह मानवता ऐसा कभी न पहले देखा।

सोमवार, 18 मई 2020

हर नदिया गाती है !

तट पर बैठो सुनो जरा ,
 हर नदिया कुछ गाती है ।

कल कल करती जल की धारा
रुक कर ये एक बात बताती है।
 
तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ  गाती है ।

निर्मल मन रख जब करना तुम ,
अर्पण हो या तर्पंण शांति लाती है।

 तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ गाती है ।

लहरों  में उसके संगीत बसा है।
सदियों  से इतिहास दिखाती  है ।
 
 तट पर बैठो सुनो जरा
 हर नदिया कुछ गाती है ।

गंगा, यमुना , गोदावरी ,नर्मदा,
अपने जग में नाम बताती है।

तट पर बैठो सुनो जरा,
हर नदिया कुछ गाती है ।

बैठ किनारे खोलो मन की गाठें ,
दर्शन प्राणिमात्र को सिख़ाती है ।
 
तट पर बैठो सुनो जरा
हर नदिया कुछ गाती है ।

समझ सको तो समझ लो जल का,
जीवन में हमें मोल समझाती है।

तट पर बैठ सुनो जरा,
हर नदिया कुछ गाती है ।

शनिवार, 16 मई 2020

हाइकु !

हाइकु

ये धरा हिली 
वो महसूस किया
हिला ये जिया।
***
भय में जीना
मरने से बुरा है
दण्ड निरा है।
***
जीवन अब 
अनुशासित जीना
नहीं है खोना।
***
विश्व आ रहा
अब पीछे हमारे
वेदों के द्वारे।
***
कोरोना क्या है?
प्रकृति की सज़ा है
एक रज़ा है ।
***


शुक्रवार, 8 मई 2020

ऊँ त्र्यम्बकं.....!

दर्द और डर
दोनों में नींद नहीं आती है,
दर्द तो इंसान का अपना ही होता है
और भय
वह तो न जा रहा है
बहुशंका और कुशंकाएँ
उपज है।
रात की खामोशियों के बीच 
कुत्तों के सामूहिक रुदन से
मन काँप ही तो जाता है।
और भयभीत मन
महामृत्युंजय के मानसिक जप में
आँखें मूँद कंर जुट जाती है।
फिर से I
ट्रैक पर सोते मजदूर
जो सोते हुए शव हो गये।
अपना दर्द भूल जाना
अहसास उनके परिजनों का
बन कर आँसू दोनों ओर लुढ़क जाते हैं।
याद आती है अपनी बेटी की तस्वीर
पीपीई किट में 
किसी गोताखोर की तरह
और फिर से बंद करके -
"हे ईश्वर सबकी रक्षा करो।"
फिर से आश्वस्त है कि 
उन्होंने कवच पहना सबको दिया
आँखें मूँद कर सोचती है
अवतार में लाखों की मौत
किसी न किसी बहने से
ये त्राटक
क्या प्रलयंकर का कोप है?
यही प्रलय है।
चेत गए तो जियेंगे
नहीं तो मृत्यु की धारा को धारण करने के लिए
कोई शिव तो बैठा होगा कहीं
आइये आह्वान करें -
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे ……।

मंगलवार, 5 मई 2020

हाँ मै हूँ बबूल !





हाँ मै हूँ बबूल !

जिसे न कोई रोपे जग मेंं,
खुद ब खुद उगता बढ़ता हूँ
नहीं धूप वर्षा की जरूरत
रहते जिसमें शूल ही शूल,
 ्हाँ मैं शूल हूँ बबूल !

नहीं चाहिए खाद औ पानी
फिर भी करके मैं मनमानी
जहाँ तहाँ उग ही आता हूँ 
चाहे धरती हो प्रतिकूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

रक्षक भी बन सकता हूँ 
खेतों पर मैं बन कर बाड़ 
सीमा पर पहले ही रोकूँ
दुश्मन को बनकर त्रिशूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !

आयुर्वेद ने समझा मुझको
ऋषियों ने देकर सम्मान
गोंंद , छाल या फल हों
औषधियों में किया कबूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !




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